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________________ १२८ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म आगे सिद्ध होने वाली समापत्ति का कारण बनती है । इस प्रकार दोनों का परस्पर कार्य-कारणभाव होने से ये एक दूसरी की वृद्धि करने वाली हैं । ध्यानरूप समापत्ति से समता की वृद्धि और समता से समापत्ति की विशुद्धि होती है । न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कंप जायते तस्मात् द्वयमन्योन्य कारणम् ॥ समापत्ति का लक्षण मणेरिवाभिजातस्य, क्षीणवृत्तेर संशयम् । तात्स्थ्यात्तद जनत्वाच्च समापत्ति प्रकीर्तिता ॥ ( उपा० यशो वि० म० द्वा० द्वा० २०१०) निर्मल मणि की तरह क्षीणवृत्ति युक्त निर्मल चित्त के ध्येय में स्थिरता और तन्मयता होने पर समापत्ति सिद्ध होती है । (योगशास्त्र) लाल पीले पुष्प के समीपस्थ निर्मल एवं स्थिर स्फटिक में पुष्प के रंग की परछाई पड़ने से स्फटिक भी लाल अथवा पीला प्रतीत होता है, उसी प्रकार से अन्तरात्मा जब विषय कषाय की मलिन वृत्तियों को दूर करके निर्मल बनती है और स्थिरतापूर्वक परमात्मा का ध्यान करती है, तब "परमात्मा ही मैं हूँ" ऐसा "सोऽहं-सोऽहं” का अस्बलित अनाहत नाद प्रकट होता है और उक्त नाद दीर्घ घंटा नाद की तरह क्रमश शान्तमधुर होने पर आत्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव होता है, तथा परम आनन्द, शीतलता और सुख की अनुप्रस मस्ती में तल्लीनता होती है; उसे समापत्ति कहते हैं । Jain Educationa International मणाविव प्रतिच्छाया समापत्ति परात्मनः । क्षीणवृत्तो भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्सले | मणि की तरह निर्मल, क्षीण वृत्तियुक्त, अन्तरात्मा में एकाग्र ध्यान के द्वारा परमात्मा का जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वही " समापत्ति" है अथवा अन्तरात्मा में परमात्मा के गुणों का अभेद आरोप करना समापत्ति है । वह अभेद्र आरोप गुणों के संसर्गारोप से सिद्ध होता है । संसर्गारोप अर्थात् सिद्ध परमात्मा के अनन्त गुणों में अन्तरात्मा का एकाग्र उपयोग, ध्यान अथवा स्थिरता होना । संसर्गारोप भी चित्त की निर्मलता होने से ही होता है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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