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१. समापत्ति और सामायिक
समापत्ति-सम की आपत्ति प्राप्ति = समता की प्राप्ति । सामायिक - सम का आय-लाभ, प्राप्ति ।
इस प्रकार समापत्ति और सामायिक एकार्थक (पर्यायवाची) एक ही अर्थ बताने वाले हैं परन्तु उनमें भेद केवल कार्य-कारणभाव का है ।
ध्यान का फल समता रूप सामायिक है ।
(१) मिथ्यादृष्टि अभव्य को भी श्रुत सामायिक अर्थात् द्रव्य मिथ्या श्रुत प्राप्त हो सकता है । उसी प्रकार से उसे द्रव्य' समापत्ति घटित हो सकती है, परन्तु भाव- समापत्ति नहीं हो सकती ।
(२) मन्द मिथ्यात्वदशा में चरम यथा प्रवृत्तिकरण के समय तथा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के समय भी श्रुत सामायिक की तरह उसकी हेतुभूत समापत्ति भी अवश्य होनी चाहिये ।
(३) सम्यक्त्व सामायिक, देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक को प्राप्त करने के समय समापत्ति अवश्य सिद्ध होती है ।
(४) उसके आगे की अप्रमत्त आदि भूमिकाओं में शुद्ध सामायिक"आया सामाइये" अर्थात् आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में ही परिणत होती है, उस समय भी उसकी अनन्तर कारणभूत ध्याता, ध्येय एवं ध्यान की एकता रूप समापत्ति अवश्य होती है ।
स्वभूमिका के योग्य अनुष्ठान की भावपूर्वक आराधना होने से आत्मवीर्य-शक्ति पुष्ट होती है, जिससे ध्यान की निर्मलता, स्थिरता एवं तन्मयता होने पर समापत्ति सिद्ध होने से स्थिर समता भाव प्रकट होता है । वही "शुद्ध सम्यक् सामायिक" है । उससे शुक्लध्यान प्रकट होता है और शुक्लध्यान से क्रमशः केवलज्ञान और सिद्धि पद प्राप्त होता है ।
इस प्रकार " समापत्ति" सामायिक समता का कारण है और समता १ द्रव्य - विषयक समापत्ति - अर्थात् तीन योगों, तीन करणों से होता विषय का ध्यान, अर्थात् विषय समापत्ति ।
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