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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ११७ (१) संकल्प, विकल्पों के जाल से रहित अर्थात् मन की निर्मलता। (२) समभाव में स्थिरता अर्थात् मन की स्थिरता। (३) आत्मस्वभाव में तन्मयता अर्थात् मन को तल्लीनता।
ममोगुप्ति के ये मुख्य तीन भेद हैं जिनमें मनोलय, मनःशुद्धि, अनप्रेक्षा, धारणा, ध्यान एवं समाधि आदि समस्त प्रकार के योगों का अथवा आन्तरिक साधनाओं का समावेश हो चुका है, जैसे----
प्रथम भेद में मन को श्लिष्ट अवस्था, धारणा तथा अनुप्रेक्षा आदि का समावेश है।
दूसरे भेद में मन को सुलीन अवस्था एवं ध्यानयोग का समावेश है।
तीसरे भेद में मन की उन्मनी अवस्था एवं समाधि-लय (अनुभव दशा) का समावेश है।
इस प्रकार उपर्युक्त तीनों प्रकार को मनोगुप्ति में समस्त प्रकार के योगों का अन्तर्भाव है, क्योंकि उसमें सर्व-संक्लिष्ट वृत्तियों का निरोध होता है और प्रशस्त वृत्तियों की प्रवृत्ति होती हैं, कहा भी है
सुदृढ़ पयत्तवावारणं, निरोही-वट्ट-माणाणं । झाणं करगाणं मयं, ण उ चित्तनिरोधमित्तांगं ।। (विशेषावश्यक)
"विद्यमान मन, वचन और काय योगरूप करणों की दृढ़तापूर्वक की गई प्रवृत्ति अथवा उनका निरोध ध्यान-योग है, परन्तु केवल चित्त-निरोध को ध्यान नहीं कहा जा सकता।" ... उपर्युक्त पंक्ति से सिद्ध होता है कि गुप्ति नहान ध्यानयोग है।
जिनागमों में तीनों योगों से ध्यान माना है, अतः तीनों प्रकार की गुप्ति ध्यानस्वरूप हैं। मनोगुप्ति धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान का मूल है।
समापत्ति और गुप्ति-मनोगुप्ति के तोनों भेदों को तीनों प्रकार की सामायिक के साथ क्रमशः घटित किया जा सकता है
(१) साम (मधुर परिणाम रूप) सामायिक में अविद्या-मिथ्यात्वजनित विकल्पों का अभाव होने से मन कल्पना जाल से मुक्त होता है।
(२) सम (तुल्य परिणाम रूप) सामायिक में चित्त की अत्यन्त स्थिरता होने से निश्चल समता होतो है।
(३) सम्म (तन्मय परिणामरूप) सामायिक में आत्मस्वरूप में चित्त की तन्मयता होने से स्वभाव-रमणता होती है, क्योंकि सम्म सामायिक में
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