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११८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म सम्यग्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों शक्कर और दूध की तरह परस्पर मिश्रित होते हैं, जिससे मन आत्मा में लीन बना होता है ।
मन की तल्लीनता काया और वचन की स्थिरता के बिना सम्भव नहीं है, अतः त्रिकरणयोग की शद्धता से ही 'आत्म-रमणता" होती है। इस भूमिका में रत्नत्रयी का अभेद प्रतीत होता है, अर्थात् इस अवस्था में किसी भी प्रकार के विकल्प नहीं होते, परन्तु निर्विकल्प, शुद्ध आत्म-तत्त्व का अनुभव होता है।
रत्न से रत्न की कान्ति जिस प्रकार भिन्न नहीं है, उसी प्रकार से ज्ञान आदि गुण भी आत्मा से भिन्न नहीं हैं। आत्मा ज्ञानस्वरूप है अर्थात् ज्ञान ही आत्मा है; सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र भी आत्मा ही है।
इस प्रकार गुण एवं रणी के अभेद से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान ही "सम्म सामायिक" है और वह मनोगुप्ति का प्रकृष्ट फल है ।
सामायिक एवं प्रवचनमाता का कार्य-कारण भाव सामायिक चरण-सित्तरी स्वरूप है और वह मूल गुण है। समिति-गुप्ति करण-सित्तरी रूप है और वह उत्तर गुण है। उत्तरगुण मूलगुण को उद्दीप्त करता है। पुष्ट करता है। सामायिक एवं समिति-गुप्ति चारित्र के ही प्रकार हैं। सामायिक समिति-गुप्ति का कार्य फल है, समिति-गुप्ति उसका साधन है, दोनों का परस्पर कार्य-कारण भाव है।
सामायिक समता के अर्थी व्यक्तियों को मन, वचन, काया की गुप्ति (स्थिरता) का सतत अभ्यास करना चाहिए। यदि गुप्ति में अधिक समय स्थिर न रहा जा सके तो सम्यक प्रवृत्तिरूप "समिति" का आलम्बन लेना चाहिये, जिससे गुप्ति का (स्थिरता का) अधिकाधिक विकास होगा और उसके फलस्वरूप क्रमशः मधुर परिणाम रूप, समपरिणाम रूप और तन्मय परिणाम रूप सामायिक का अनुभव होगा।
सामायिक जिनशासन की एक अनुपम देन है, अमूल्य सम्पत्ति है।
इस सामायिक की उत्पत्ति “समिति-गुप्ति" के कारण होती है जिससे उसका “प्रवचन माता" नाम यथार्थ है ।
___ समापत्ति एवं गुप्ति- समापत्ति भी मनोगुप्ति स्वरूप है। ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता का नाम ही समापत्ति है, जिसका अन्तर्भाव मनोगुप्ति के पूर्वोक्त प्रकार में हो चुका है। समापत्ति में भी चित्त कल्पनाजाल से मुक्त, समभाव में प्रतिष्ठित और आत्मस्वभाव में तन्मय होता
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