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११६ सर्वज्ञ कथित: परम-सामायिक धर्म
समिति" आदि को "प्रवचन माता" कहा है। इनके पालक साधु को भव का भय नहीं होता, अतः प्रयत्नपूर्वक नित्य इनका पालन करना चाहिये ।" "योगशास्त्र" में भी कहा है कि "चारित्र - देह को उत्पन्न करने वाली, रक्षा करने वाली और पावन करने वाली होने से "समिति गुप्ति " को साधु की आठ माताओं के रूप में माना जाता है ।
माता बालक का हित करने वाली होती है, उसी प्रकार से ये प्रवचन माता भी ( चारित्र गुण उत्पन्न करके) चारित्रवान् का हित करती हैं, चारित्र जीवन में लगने वाले अतिचारों (दोषों) की मलिनता दूर करके आत्म-विशुद्धि की वृद्धि करती हैं।
समिति गुप्ति का लक्षण और कार्य
गुप्ति-संवरमयी उत्सर्गिक ( निश्चय मार्ग) परिणाम रूप है । समिति - संवर एवं निर्जरामय अपवाद ( शुद्ध व्यवहारमय मार्ग ) परिणाम रूप है ।
आत्मगुण के प्राग्भाव - प्रकटीकरण से पूर्व मोक्ष साधक आत्मपरिणाम ही समिति - गुप्ति है ।
अयोगी अवस्था सिद्ध करने की तीव्र उत्कंठा वाले साधक व्यक्तियों के जीवन में गुप्ति की प्रधानता होती है, अर्थात् वे संकल्प-विकल्प का जा तोड़कर मन को स्थिर करते हैं, वाणी का व्यापार बन्द करके मौन धारण करते हैं और हलन चलन की क्रियाओं को त्याग कर स्थिर होते हैं, यह मुनि का उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु इस मार्ग पर दीर्घ काल तक स्थिर नहीं रह सकने पर अथवा ऐसी आवश्यकता पड़ने पर जयणापूर्वक प्रवृत्ति करने के लिए वह समिति का आश्रय लेता है । समिति शुभ प्रवृत्ति स्वरूप है और गुप्ति शुभ कार्य में प्रवृत्ति और अशुभ कार्य में निवृत्ति रूप है । इन आठों प्रवचन माताओं में "मनोगुप्ति" प्रधान है। शेष सात उसे ही पुष्ट बनाती हैं, अर्थात् मनोगुप्ति साध्य है और शेष सात साधन हैं । कहा भी है- "धर्मः चित्त प्रभवो " - धर्म चित्तप्रभव है अर्थात् धर्म का उद्भव स्थान चित्त है । कर्म-मल के नाश होने से निर्मल एवं पुष्ट बना चित्त ही धर्म है । समस्त सदनुष्ठानों का आयोजन चिस की शुद्धि के लिए ही है ।
मनोगुप्ति एवं सामायिक
विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञ मनोगुप्तिरुदाहृता ॥
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- (योगशास्त्र)
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