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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ११५ के नाम से सम्बोधन किया जाता है। जैन दर्शन में "अष्टप्रवचनमातो" अत्यन्त प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण हैं। पणिहाण जोगजुत्तो पंचहिं समिहिं तिहिं गुत्तिहिं । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्यो ।। "प्रणिधान योग-युक्त चारित्राचार पांच समिति और तीन गुप्ति के द्वारा आठ प्रकार का है । चारित्र के समस्त प्रकारों का संग्रह आठ प्रवचन माताओं में हो चुका है।" चारित्र की उपस्थिति में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की भी उपस्थिति अवश्य होती है। इस प्रकार रत्नत्रयी का एकत्रित सम्मिलन होने से "प्रवचनमाता" सामायिक स्वरूप है। प्रवचनमाता नाम की सार्थकता-कहा है कि प्रवचन' द्वादशांगी अथवा (उसके आधारभूत) श्रमण संघ की जननी होने से "ईर्या समिति" आदि आठ "प्रवचनमाता" कहलाती हैं, क्योंकि उन ईर्या समिति आदि के आश्रय से ही उनकी (प्रवचनमाता की) साक्षात् अथवा परम्परा से उत्पत्ति होती है। जिसके द्वारा जिनकी उत्पत्ति होती है, उन्हें उनकी "माता" कहा जाता है। चतुर्विध संघ ईर्या समिति आदि को एक घड़ी भी अलग नहीं रखे तो ही उसे संघ कहा जा सकता है। "प्रवचनमाता" की उपेक्षा करने वाला साधु सचमुच साधु नहीं है और श्रावक सचमुच श्रावक नहीं है । - छोटा बालक माता के सतत सान्निध्य में रहकर ही बड़ा होता है, उत्तम जीवन जीने वाला बनता है। माता से बिछुड़ जाने वाला बालक उचित देखरेख के अभाव में अकाल काल का ग्रास भी बनता है, उसी प्रकार से साधु-साध्वी अथवा श्रावक-श्राविका भी इन माताओं की निश्रा में रहकर जीवन यापन करें तो ही वे संघ के सदस्य रह सकते हैं, अन्यथा नहीं। _ 'षोडषक" ग्रंथ में परम पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भी यही बात बताई है कि-"प्रवचन की प्रसूति में हेतु-भूत होने से "ईर्या १ प्रवचनस्य द्वादशांगस्य तदाधारस्य वा संघस्य मातर इव जनन्य इव प्रवचनमातरः इर्यास मित्यादयः ।। यासमित्यादयः। . .. -(समवायांग सूत्रवृत्ति) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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