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१०८ सर्वश कथित: परम सामायिक धर्म
नरक आदि की दुस्सह यातनाओं से बचने के लिए और उसकी अनन्य कारणभूत बहिरात्मदशा का निवारण करने के लिए मोह द्वारा प्रदत्त मन्त्र भूलना होगा, उसके जाप स्थगित करने पड़ेंगे। मोह के प्रतिस्पर्द्धा धर्म राजा का अमोघ मन्त्र " नाहं न मम" का जाप निरन्तर शुरू करना पड़ेगा ।
यह दिखाई देने वाली देह मैं नहीं हैं, ये तथाकथित स्वजन, सम्पत्ति अथवा सत्ता मेरे नहीं हैं, परन्तु मैं एक शुद्ध आत्मद्रव्य हैं, केवलज्ञान आदि - गुण मेरे हैं, उनके अतिरिक्त समस्त पुद्गल द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं उनका नहीं है।"
मेरी आत्मा तो अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों से परिपूर्ण है, वह शाश्वत हैं, उसका कदापि नाश होने वाला नहीं हैं, वह तो अजर, अमर, अविनाशी हैं, सच्चिदानन्दस्वरूप एवं परमानन्दमय है ।
ये दृश्य-अदृश्य समस्त पौद्गलिक पदार्थ तो क्षणिक एवं नश्वर हैं, हैं और सुख देने की शक्ति रहित हैं । ऐसे पदार्थों के प्रति मोह - ममता रखकर मैं क्यों दुःखी होऊँ ? उनकी आसक्ति से तो आत्मा दीर्घकाल तक दुःखमय दुर्गतियों की पथिक बनती हैं ।
इस प्रकार देह आदि पदार्थों की अनित्यता एवं असारता का बार-बार चिन्तन करने से और आत्मा के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन, मनन करने से बहिरात्मदशा नष्ट होती जाती हैं और अन्तरात्म दृष्टि विकसित होती रहती हैं ।
अन्तरात्मदृष्टि प्राप्त करने का उपाय - सत्शास्त्रों के सतत अध्यन्यन, अभ्यास से एवं सद्गुरुओं के पुनीत समागम - सम्पर्क से आत्मा एवं देह आदि पदार्थों की भिन्नता का ज्ञान ज्यों-ज्यों अधिकाधिक आत्मसात् होता हैं, त्यों-त्यों "अन्तरात्मदशा" का अधिकाधिक विकास होता रहता हैं, उसमें स्थिरता आती रहती हैं ।
"मैं आत्मा हूँ" ऐसा यथार्थ ज्ञान होने पर जीव को पूर्वावस्था ६ (बहिरात्मदशा) में किये गये अकार्यों के कारण अपार पश्चात्ताप होता है, अमूल्य समय नष्ट करने के कारण अत्यन्त खेद होता हैं कि - आज तक मैं इन्द्रियों का दास बनकर, देह सुख में ही आसक्त अन्धा बनकर मैं अपनी विशुद्ध एवं पूर्णानन्दमय आत्मा को ही भूल गया, पूर्णतः निकटस्थ सुख-शान्ति के अक्षय निधान को भी मैं नहीं निहार सका नहीं पहचान
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