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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना १०७ हैं । वे जिस प्रकार अपनी देह में अपनी आत्मा की बुद्धि रखते हैं, उसी प्रकार से दूसरों को देह में भी दूसरों की आत्मा की बुद्धि रखते हैं । आत्मा के वास्तविक परिचय के अभाव में अज्ञानी जीव अपनी देह को ही अपना स्वरूप मानते हैं और पर की देह को पर का स्वरूप मानते हैं, परन्तु देह में व्याप्त अनन्तज्ञान एवं आनन्दमय आत्म-तत्व के स्वरूप का उन्हें तनिक भी ज्ञान नहीं होता। (स्वत्व के) अज्ञानान्धकार में टकराते जोव माता, पिता, पुत्र, कलत्र, स्नेही, स्वजनों, महल-बगीचों और धन-धान आदि सामग्री में ममत्व की कल्पना कर लेते हैं। पृथ्वीकाय आदि पद्गलों के पिण्ड स्वरूप स्वर्ण, चाँदी आदि को ही वास्तविक सम्पत्ति मान कर उनमें ममत्व भावना रखते हैं और उन्हें ही सुख के साधन समझ कर उन्हें प्राप्त करके उनका उपभोग करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं । पुद्गलजनित सांयोगिक सुखों की तीव्र आशा, आसक्ति और मूर्छा के वशीभूत बने इन अज्ञानी व्यक्तियों को देह के प्रति हुए आत्म-भ्रम एवं जड़ पदार्थों की ममता के कारण यह देह बार-बार धारण करनी पड़ती हैं और भयंकर दुःखमय नरक-निगोद आदि दुर्गतियों में अनन्त काल तक परिभ्रमण करना (पीड़ित होना) पड़ता है, इस बात का उन्हें तनिक भी ध्यान नहीं आता। बहिरात्मदशा के शिकार बने संसारी जीवों की ऐसी दयनीय दशा देखकर ज्ञानी पुरुषों का हृदय भाव-करुणा से आर्द्र हो जाता है। देह आदि क्षणिक सुखों के लिए हिंसा आदि पाप-कार्यों में प्रवृत्त जीवों का भयंकर भावी देखकर परम कृपालु महात्माओं के नेत्र भी अश्रु-पूर्ण हो जाते हैं। ___ इस काल कवलित संसार में परिभ्रमण कराने वाले, संसार वृक्ष की मूल तुल्य बहिरात्मदशा का मूलोच्छेदन करने के लिये ज्ञानी भगवान सर्व प्रथम उपदेश देते हैं। बहिरात्मदशा निवारण करने का उपाय-"मैं और मेरा' यह मन्त्र मोहराजा का हैं । संसारी जीव अनादि काल से ही इस मन्त्र का अजपाजाप कर रहा हैं। इसके प्रभाव से ही जन्म, जरा, मृत्यु, आधि, व्याधि एवं उपाधि की अनेक भौति को असह्य यातनायें इस जीव को भोगनी पड़ती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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