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________________ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म सम्म सामायिक एवं उन्मनी भाव-सम्म सामायिक प्रशान्तवाहितारूप है, जिसमें पूर्वोक्त चित्त की चारों अवस्थाओं में से कोई अवस्था नहीं होती, परन्तु यहाँ चित्त अत्यन्त उन्मनी भाव में ( अमनस्क) होता हैं । बहिरन्तश्च समंतात्, चिता चेष्टा परिच्युतो योगी । तन्मयभावं प्राप्तः, कलयति मृगमुन्मनीभावम् ।। १०६ "बाह्य एवं आन्तरिक चिन्ता - चेष्टा रहित योगी तन्मय भाव प्राप्त करके अत्यन्त अमनस्क हो जाता हैं ।" जब चित्त चिन्तन-मुक्त होता है तब शान्त सुधारस का आनन्द धाराप्रवाह चलता हैं । बहिरात्मदशा दूर करके, अन्तरात्मदशा में स्थिर होकर, परमात्मस्वरूप के ध्यान में तन्मय होने से उपर्युक्त " उन्मनीभाव" उत्पन्न होता हैं, जिसे लय, औदासीन्य अथवा "अमनस्कयोग" भी कहते हैं । बहिरात्मदशा का विशेष स्वरूप गुरुगम से समझने का प्रयत्न करें । संक्षेप में निम्नलिखित हैं । आत्मा की तीन अवस्था -- (१) बहिरात्मा - देह में आत्मबुद्धि बहिरात्मा का लक्षण हैं । चर्मचक्षुओं से दीखने वाली देह ही मैं हूँ — ऐसी मान्यता एवं तदनुरूप प्रवृत्तिवाला जीव "बहिरात्मा" कहलाता है । उसे प्रथम गुणस्थानवर्ती "मिथ्यादृष्टि" जीव भी कहते हैं । (२) अन्तरात्मा - देह से भिन्न एवं देह के भीतर विद्यमान चैतन्य तत्व में आत्मबुद्धि अन्तरात्मा का लक्षण हैं । भौतिक दृष्टि से दिखाई देने वाली देह में नहीं हूँ परन्तु उसके भीतर रहा हुआ चैतन्य तत्व ( आत्मा ) ही मैं हूँ - ऐसी मान्यता वाला और तदनुरूप प्रवृत्ति वाला जीव अन्तरात्मा कहलाता है, अर्थात् जिसे चित्त, वाणी अथवा काया आदि में आत्म-भ्रांति नहीं होती उसे "अन्तरात्मा" कहते हैं । सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति - चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के जीव इस भूमिका में होते हैं । (३) परमात्मा - सच्चिदानन्दस्वरूप प्राप्त शुद्ध बुद्ध और पूर्ण ज्ञानी आत्मा को "परमात्मा" कहा जाता है । वे सयोगी और अयोगी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अरिहंत एवं सिद्ध भगवान हैं । बहिरात्मदशा की भयंकरता - इस अवस्था वाले जीव देह आदि पौद्गलिक पदार्थों में ही अहंकार एवं ममत्व की वृत्ति प्रवृत्ति करते होते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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