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________________ • सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना १०६ सका ? उफ ! सुख और आनन्द के आभास तुल्य इन विषय-सुखों के दारुण विपाक को भूलकर मैं कितने भयंकर भ्रम का शिकार हो गया। ___ असार को सार और विनाशी को अविनाशी मान लेने की इस प्राण-घातक भूल का पर्दा फट जाने पर अब मुझे वह सत्य समझ में आता है कि बाह्य दृष्टि से दीखते ये समस्त पदार्थ जड़ हैं, उनमें कोई ज्ञान नहीं है, उनमें सुख अथवा आनन्द प्रदान करने की तनिक भी शक्ति नहीं है। जो सुख-दुःख की भावना को जानती है, अनुभव करती है, वह तो मेरे भीतर बसी चैतन्य शक्ति है, जिसे आत्मा कहते हैं । यह आत्म-द्रव्य सनातन है, तीनों काल में अबाधित रीति से रहने वाला द्रव्य है । यह कदापि अपना चैतन्य स्वरूप छोड़कर जड़रूप नहीं बनता। ____ अनादिकाल से कर्म परमाणुओं के साथ वह हिल-मिल गया है, फिर भी इसका स्वयं का स्वरूप कदापि नष्ट नहीं होता। उसके अमुक प्रदेश (आठ रुचक प्रदेश) तो सदा निरावरण एवं निर्मल ही होते हैं। ऐसे आत्मतत्व से परिचित कराने वाले तीर्थकर परमात्मा, उनके शास्त्र एवं सद्गुरुओं की शरण ग्रहण करके उनके मार्गदर्शन और आदेशानुसार यदि मैं जीवन यापन करने के लिए प्रेरित होऊँ तो इस भयानक भव अटवी से मेरा अवश्य उद्धार हो जायेगा। निरंजन, निराकार, ज्योतिर्मय सिद्ध परमात्मा के ध्यान में लीन होकर, अरिहन्त परमात्मा के शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्यायों का चिन्तन-मनन करके मैं अपने आत्मस्वरूप का यथार्थ परिचय एवं उसकी अनुभूति करने का प्रयास करूंगा। अन्तरात्मदशा प्राप्त करने का यही अनन्य उपाय है, सच्चा मार्ग है। अनालम्बनयोग अन्तरात्मदशा स्वरूप है, वह कहां हो सकता है ? अर्थात उसके अधिकारी कौन हैं ? इसका उत्तर यह है कि अनालम्बनयोग मुख्यतः क्षपकश्रेणीरूप अपूर्वकरण में होता है, अर्थात् उसके अधिकारी सातवें आठवें गुणस्थानक वाले जीव होते हैं, अर्थात् परमात्म-तत्व का साक्षात्कार केवलज्ञान से होता है और केवलज्ञान प्राप्त होने के पूर्व क्षण तक अनालम्बन योग अवश्य होता है । ___ इस प्रकार आठवें गुणस्थानक से लगाकर बारहवें गुणस्थानक तक सम्पूर्ण "निरालम्बनयोग" होता है, जबकि सातवें गुणस्थानक में यह निरालम्बन योग अंशतः अल्प प्रमाण में हो सकता है, क्योंकि श्रेणी प्रारम्भ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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