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________________ १०४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म आत्मा मोह के त्याग से स्वात्मा में ही स्वआत्मा के द्वारा आत्मा को ही जानती है, वही उसका चारित्र है, वही ज्ञान और दर्शन है।" __महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने भी "ज्ञानसार" में बताया है कि "ज्ञाता आत्मा, आत्म-स्वभावरूप आधार के सम्बन्ध में शुद्ध कर्म-उपाधिरहित स्वद्रव्यरूप आत्मा को आत्मा के द्वारा अर्थात् ज्ञप्ररिज्ञा एवं प्रत्याख्यान-प्ररिज्ञा के द्वारा जानती है। इस रत्नत्रयी में ज्ञान, रुचि, श्रद्धा एवं चारित्र (आचरण) की मुनि को अभेद परिणति होती है।" इस कारण से ही जो श्रुत ज्ञान के द्वारा केवल आत्मा को जानते हैं, उन्हें अभेद नय की अपेक्षा से "श्रुतकेवली" समझें, और जो केवल सम्पूर्ण श्रुत को ही जानते हैं उन्हें भेद नय से "श्रुतकेवली" समझने का शास्त्रों में उल्लेख है। इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि तन्मयतास्वरूप I"सम्म सामायिक" में आत्मानुभव अवश्य होता है। योग शास्त्र के बारहवें प्रकाश में भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है जिसके सार पर यहाँ विचार करेंगे। अनुभवदशा का स्वरूप-सम्पूर्ण कर्म के क्षेय से मोक्ष प्राप्त होता है। कर्म-क्षय आत्मज्ञान-अनुभव से होता है और आत्मज्ञान ध्यान-साध्य से । अतः ध्यान करना समस्त मुमुक्षु आत्माओं का सच्चा हित है। ध्यान समता के बिना नहीं हो पाता और ध्यान के बिना निश्चल समता प्राप्त नहीं होती। दोनों परस्पर एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं। समता और ध्यान का स्थान "चित्त" है। चित्त की निम्नलिखित चार अवस्थाएं बताई गई हैं (१) विक्षिप्त-सामान्य लोगों का तथा प्राथमिक अभ्यासी का चित्त अत्यन्त चंचल होता है। जिन व्यक्तियों का मन किसी भी कार्य में स्थिर नहीं रहता, सदा डाँवाडोल रहता है, वह "विक्षिप्त अवस्था" कहलाती है। १ आत्मात्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना । सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारकता मुनेः ।। -- (ज्ञानसार) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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