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सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना १०३ दृष्टि (संज्ञा अक्षर रूप), वाङमयोदृष्टि (व्यंजनाक्षर रूप) अथवा मनोमयी दृष्टि (लब्धि अक्षर रूप अर्थ परिज्ञान) से ज्ञात नहीं किया जा सकता।
___ योगियों को इस सालम्बन ध्यान रूप अपरतत्ब के प्रभाव से ही "परतत्व" प्राप्त होता है, उसके बिना नहीं हो सकता।
अक्षर श्रुतज्ञान के तीनों भेदों के द्वारा "ब्रह्म" का अनुभव कदापि नहीं हो सकता । "ब्रह्म" का अनुभव करने के लिए तो “अनुभव ज्ञान" ही समर्थ है।
अनुभवदशा सुषुप्ति, स्वप्न अथवा जागृत अवस्था से भी चौथी अनुभवदशा है। यह विकल्प रहित अवस्था है, फिर भी सुषुप्ति नहीं है, क्योंकि सुषुप्त अवस्था विकल्प रहित होने पर भी मोहमयी है, जबकि स्वप्न एवं जागृत अवस्था तो सविकल्प एवं मोहस्वरूप भी है। अतः इन तीनों से अनुभव-अवस्था भिन्न है।
__ अनुभवदशा की महिमा-शास्त्र सूचना देते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने के उपाय बताते हैं, परन्तु आत्मा का साक्षात्कार कराके भव-सागर से उस पार पहुंचाने का कार्य तो “अनुभवज्ञान" का ही है।
____ "इन्द्रियों से अगोचर एवं समस्त उपाधियों से रहित शुद्ध आत्मा को शुद्ध अनुभव के बिना, केवल शास्त्रों की सहस्रों युक्तियों से हम नहीं जान सकते।"
___ आत्मा अतीन्द्रिय पदार्थ है। इसे जानने-समझने के लिये अतीन्द्रिय सामर्थ्य योगस्वरूप "अनुभवज्ञान" ही एक अनन्य उपाय है।
"अनुभवज्ञान" शास्त्रयोग का फल है। इस कारण ही यह मोक्ष का प्रधान साधन है । सुविहित मुनि शास्त्र-दृष्टि से शब्द ब्रह्म का बोध करके अनुभवज्ञान के द्वारा स्वप्रकाशरूप परब्रह्म-आत्म-स्वरूप को जानते हैं।
___ "सम्म सामायिक" भी प्रशान्तवाहिता, अनालम्बन योग और असंग अनुष्ठानरूप है, यह बात हम पहले सोच चुके हैं। यहाँ तो "सम्म सामायिक" और "अनुभवदशा' कहने का कारण यह है कि इनमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र परिणाम स्वरूप आत्मा का अनुभव होता है । १ अतीन्द्रियं परब्रह्म विशुद्धानुभवं बिना। शास्त्रायुक्ति शतेनापि न गम्यं यद् बुधाः जगुः ।।
- (ज्ञानसार) आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यणाद् य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रतज्ज्ञानं तच्च दर्शनम ॥
- (योगशास्त्र)
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