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________________ १०२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म फिर डंडे के अभाव में भी पूर्व वेग के संस्कार से सतत भ्रमण करता रहता है, उसी प्रकार से आगम के सम्बन्ध से प्रवर्तित वचन अनुष्ठान के सतत अभ्यास से जब आगम के संस्कार अतिरूढ़ (स्वभावगत) हो जाते हैं, तब शास्त्र-वचनों की अपेक्षा के बिना भी सहज भाव से प्रवृत्ति होती है, वही "असंग अनुष्ठान" है। उस समय चित्त की स्वस्थता तेल की धारा की तरह प्रशान्त होती है, अतः बिना प्रयत्न के केवल पूर्व स्मृति की अपेक्षा से सहज भाव से सुविशुद्ध भावों का धाराबद्ध प्रवाह होता है। योग-शास्त्रों में चित्त की ऐसी अवस्था को "प्रशान्तवाहिता" कहते हैं । ___ "सम्म सामायिक" भी सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण की तन्मयता का आत्म-परिणाम है और दूध में डाली गई शक्कर की एकरूपता की तरह ये तीनों गुण परस्पर एक दूसरे से एकरूप होकर मिल जाने से "सम्म सामायिक" प्राप्त होती है । अनालम्बन योग के समस्त लक्षण “सम्म सामायिक" पर भी सापेक्षता से घटित किये जा सकते हैं, जिसके पूर्ववर्ती सालम्बन ध्यान आदि का अन्तर्भाव “सम सामायिक" में किया जा सकता है, क्योंकि उसमें शास्त्रयोग तथा ध्यानयोग की प्रधानता होती है। (३) सम्म सामायिक एवं अनुभवदशा-प्रातिभज्ञान अनुभवदशास्वरूप है। ध्यानयोग एवं श्रुतज्ञान के सतत अभ्यास से जो प्रातिभज्ञानस्वरूप आत्म-ज्योति प्रकट होती है उसे "अनुभव" भी कहते हैं। जिस प्रकार दिन और रात्रि से “संध्या" भिन्न है, उसी प्रकार से प्रातिभ अनुभव ज्ञान केवलज्ञान एवं श्रुतज्ञान से भिन्न है, अर्थात मति-श्रत की उत्तरभावी और केवलज्ञान की पूर्वभावी आत्मज्योति को "अनुभव" कहते हैं। 'षोडषक" में भी कहा है कि, परमात्मा का सालम्बन-ध्यान जब पराकाष्ठा पर पहुँचता है, तब उसके फलस्वरूप "प्रातिभ-ज्ञान" प्राप्त होता है और उसके प्रभाव से तत्व-दर्शन (आत्म-दर्शन) प्राप्त होता है। श्रुतज्ञान से अनुभव ज्ञान को भिन्नता–समस्त प्रकार के संक्लेश से रहित आत्म स्वरूप को विशुद्ध (प्रत्यक्ष) अनुभव के बिना लिपिमयी १ चरमाबंचकयोगात्-प्रातिभसंजाततत्वसुदृष्टिः । -(षोडषक) २ पश्यतु ब्रह्मनिर्द्वन्द्व, निर्द्वन्द्वानुभवं बिना। कथं लिपिमयी दृष्टि वाङमयी वा मनोमयी। --(ज्ञानसार) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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