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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना १०१ होता है अर्थात् प्रकर्ष कोटि का होता है, तब साधक की आत्मा पाप-रहित मोहरहित एवं शुक्ल ( निर्मल) ज्ञानोपयोग युक्त होती है, जिससे वह मुक्ति के सर्वथा समीप होती है, तथा फलावंचक योग के प्रभाव से “प्रातिभज्ञान" प्राप्त होने से तत्वदृष्टियुक्त होती है ।" इस सालम्बन ध्यान को "अपरतत्व" ( अपरब्रह्म) भी कहते हैं, जिसके बल से परतत्व सिद्धस्वरूप प्रकट होता है । ध्यान आदि साधना में अहर्निश तत्पर रहने वाले समस्त योगियों. को इस सालम्बन ध्यान रूप अपरतत्व के प्रभाव से हो " परतत्व" प्राप्त होता है, उसके बिना नहीं हो सकता । जिस परतत्व- सिद्धस्वरूप की अपूर्व महिमा है, अचिन्त्य प्रभाव है, वही सारभूत सत्य है, प्रकृष्ट है, महान हैं। सिद्धस्वरूप के दर्शन से समस्त वस्तुओं के वास्तविक दर्शन होते हैं और उसके प्रभाव से परतत्व विषयक ध्यान रूप "अनालम्बनयोग" की भी तीनों लोकों में प्रधानता (प्रकृष्टता) है, अर्थात् अनालम्वन योग तुल्य संसार में अन्य कोई श्रेष्ठ योग नहीं है, वही समस्त योगों का सम्राट है । इस प्रकार परमात्मा के सालम्बन ध्यान के प्रकृष्ट फल के रूप में जीव को प्रातिभज्ञान एवं तत्व दर्शन ( आत्मानुभव) होता है, जिसके योग से क्रमशः अनालम्बनयोग, केवलज्ञान और सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है । "अनालम्बनयोग" धारावाही प्रशान्तवाहिता नामक चित्त है और वह यत्न के अतिरिक्त स्मरण (स्मृति) की अपेक्षा से स्वरस ( सहज स्वभाव ) से ही सदृश धारा में प्रवृत्त होता है - यह समझें ।" - ( ज्ञानसार, स्वोपज्ञ भाषार्थ ) पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने उपर्युक्त पंक्तियों में "अनालम्बन योग" को स्पष्ट किया है । अनालम्बन योग असंग अनुष्ठानस्वरूप हैं जो प्रीति, भक्ति और वचन अनुष्ठान के सतत अभ्यास से अर्थात् सालम्बन ध्यान के सतत अभ्यास से प्रकट होता है । असंग अनुष्ठान का लक्षण बताते हुए कहा भी है कि अत्यन्त अभ्यास के द्वारा चन्दन और सुगन्ध की तरह सहज भाव से अर्थात् प्रयत्न किये बिना जो क्रिया की जाती है वह "असंग अनुष्ठान" है । " प्रयत्न किये बिना" का अर्थ यह है कि जिस प्रकार प्रथम डण्डे से चलने वाला चक्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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