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________________ १०० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म जैन परिभाषा में योग और ध्यान प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। यहां ध्येय-विषयक आलम्बन दो प्रकार का होने से ध्यान के भी मुख्यतः दो भेद बताये गये हैं-(१) आलम्बनध्यान और (२) निरालम्बन ध्यान । . आलम्बन के मुख्य दो भेद हैं- (१) रूपी और (२) अरूपी । (१) रूपी आलम्बन-इन्द्रियगोचर हो सके ऐसी स्थूल वस्तु जो आँखों से देखी जा सके जैसे-जिन-प्रतिमा, समवसरण में स्थिर जिनेश्वर भगवान उनका ध्यान “रूपी आलम्बन" है। उसके अधिकारी चतुर्थ से छठे गुणस्थानक वाले जीव हैं । (२) अरूपी आलम्बन-इन्द्रियों को अगोचर सूक्ष्म वस्तु जो आँखों से देखी न जा सके जैसे-केवलज्ञान आदि गुण, और उनका ध्यान "निरालम्बन" योग है। ज्ञान आदि गुणों का आलम्बन सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने से उसे "निरालम्बन" कहते हैं। इसके अधिकारी सातवें से बारहवे गुणस्थानक वाले साधु भगवान होते हैं । दूसरे प्रकार से निरालम्बन योग-संसारी व्यक्ति के औपाधिक स्वरूप को त्याग कर स्वाभाविक स्वरूप का परमात्मा के साथ तुलनात्मक ध्यान करना भी "निरालम्बन योग" है। निरालम्बन ध्यान आत्मा के तात्विक स्वरूप को देखने की इच्छा, अखण्ड लालसा स्वरूप है, अथवा परमात्म-तत्व के दर्शन की तीव्र इच्छा अथवा आत्म-साक्षात्कार की अदम्य लगन स्वरूप है। "षोडशक" में भी कहा है कि, "जब तक साक्षात् परमात्मा के दर्शन न हों तब तक साधक की सामर्थ्य योग के द्वारा परमात्मा-दर्शन की असंगभाव पूर्वक जो तीव्र अभिलाषा होती है उसे "अनालम्बन योग" कहते हैं। यद्यपि उस समय परमार्थ से तो साधक की परमात्म-तत्व में स्थिरता नहीं होती, फिर भी ध्यान के द्वारा परमात्म-तत्व के दर्शन की प्रवृत्ति चलती रहती है और सर्वोत्तम योग निरोधरूप अवस्था से पूर्व उसकी उपस्थिति अवश्य होती है, अतः वह “अनालम्बन योग" कहलाता है, जो अरिहन्त परमात्मा के सालम्बन ध्यान का प्रधान फल है। "सतत अभ्यास के परिणाम में यह सालम्बन ध्यान जब परिणत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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