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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना ७६ प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि प्रत्येक आवश्यक क्रियायें भी गुरु की निश्रा में करनी चाहिये, ताकि उनमें अतिचार, स्खलना आदि की संभावना न रहे और विधि-विधान में तनिक भी प्रमाद न रहें। ___ समस्त आवश्यक कर्तव्य गुरु को पूछकर ही करने चाहिये। इस आमन्त्रण-सूचक "भन्ते' शब्द की मुख्य ध्वनि यही है। प्रश्न-गुरु को पूछने की आवश्यकता क्यों ? समाधान- विनय सेवा का हेतु है । सेवा के लिए समयोचित मार्ग: दर्शन की आवश्यकता है। गुरु भगवान कृत्य, अकृत्य और द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि के ज्ञाता होते हैं। इस कारण ही उनकी आज्ञा की आवश्यकता रहती है। अरे, श्वासोश्वास लेने-छोड़ने की क्रिया के लिए भी गुरु की आज्ञा लेने का शास्त्रीय आदेश है, विधान है। इसी प्रकार से गुरु की निश्रा (उपस्थिति) भी महान फलदायिनी है। प्रत्येक क्रिया करते समय “स्थापनाचार्य जी" को सम्मुख रखने का यही कारण है। जिस प्रकार जिनेश्वर के विरह में जिन-पडिमा और जिनागम की पूजा आदि करने से साक्षात् जिन-पूजा जितना ही फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार से गुरु के विरह में भी "गुरु-स्थापना" उनके उपदेश को बताने वाली होने से पूजनीय है। उनकी विनयपूर्वक भक्ति, पूजा अवश्य फलदायिनी होती है। जिस प्रकार किसी राजा अथवा मन्त्र-देवता की आराधना परोक्ष रूप से की जाये तो भी उसके आराधक को इष्टफल प्राप्त होता है, उसी प्रकार से अप्रत्यक्ष गुरु की सेवा भी विनय का कारण बनती है। गुरु की स्थापना में दर्शन-वन्दन से शिष्य को गुरु के गुणों का स्मरण होता है और जब वह उसमें तन्मय हो जाता है तब उक्त शिष्य भी "भाव गुरु" का स्वरूप धारण करता है, यह एक अपेक्षा से (आगम में भावनिपेक्ष से) कहा जा सकता है । इस कारण ही गुरु की अनुपस्थिति में गुरुस्थापना गुरु के गुणों का ज्ञान-स्मरण कराने में महान निमित्त होती है । इसलिए साक्षात् गुरु की तरह स्थापना-गुरु की भी विनय करना आवश्यक है क्योंकि दोनों की सेवा का फल समान है। जिन-शासन का मूल विनय है । विनीत व्यक्ति ही "संयत-संयमी" होता है। विनयविहीन व्यक्ति को धर्म अथवा तप की सम्भावना नहीं होती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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