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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
(३) ध्यान - सम्यग्दर्शन', ज्ञानचारित्र स्वरूप " सामायिक' ' ही हैं । व्यवहार सामायिक के साधन सावद्य - पाप व्यापारों का त्याग, मन, वचन और काया आदि हैं, जिनका निर्देश सूत्र में ही हो चुका है । व्यवहार सामायिक के सतत सेवन से ही निश्चय सामायिक प्रकट होती है ।
निश्चय - सामायिक की प्राप्ति होने पर आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा में ही अनुभव करती है; वही ज्ञान, दर्शन, चारित्र कहलाता है । इस कक्षा में छःओं कारक एक हो जाते हैं । अतः उनकी भिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
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गुरु तत्त्व का महत्त्व - भन्ते ! हे गुरु भगवान् ! "भन्ते" शब्द का भिन्न-भिन्न रूप से प्रयोग करने पर कितने अर्थ आदि घटित हो सकते हैं जो यहाँ बताये गये हैं । प्राकृत शैली के कारण ये समस्त अर्थ होते हैं और वे यथार्थ हैं ।
" भदन्त" - कल्याण अथवा सुख-स्वरूप मोक्ष अथवा ज्ञान आदि गुण प्राप्त कराने वाले होने से आचार्य भगवान् “भदन्त" कहलाते हैं । भवान्त -भव (संसार) का अन्त करने वाले होने से आचार्य भगवान् "भवान्त" कहलाते हैं ।
भयान्त - सातों प्रकार के महान् भयों के नाशक होने से आचार्य भगवान् “भयान्त” कहलाते हैं ।
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भजन्त - जो मोक्ष मार्ग का सेवन करते हैं अथवा जो मुमुक्षुओं के द्वारा सेव्य है । इस कारण आचार्य भगवान् "भजन्त" कहलाते हैं ।
भ्राजन्त - जो ज्ञान एवं तप के तेज से तेजस्वी हैं, अतः आचार्य भगवान् “भ्राजन्त” कहलाते हैं ।
"भन्ते" शब्द के द्वारा गुरु को निमन्त्रण देने का क्या महत्व है ? इस प्रश्न का उत्तर भी महत्वपूर्ण है, वह यह है कि शिष्य के लिए गुरुकुलनिवास का महत्व और प्रत्येक क्रिया गुरु के पवित्र सान्निध्य में ही करने की है, यह बताने के लिए "भन्ते" का निमन्त्रण सूचक प्रयोग किया गया है ।
ज्ञान आदि गुणों का अर्थी शिष्य नित्य गुरुकुल-वासी होता है, क्योंकि उसके बिना ज्ञान आदि गुणों की प्रगति एवं श्रद्धा तथा चारित्र - धर्म में अधिकाधिक स्थिरता होना सम्भव नहीं है ।
१ "ताहरू ध्यान ते समकित रूप, तेहीज ज्ञान अने चारित्र तेह छे जी"
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