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________________ XXXXXXXXपरीषह-जयीxxxxxxx मुनिवेश में महाराज विद्युच्चर ने लोगों को सम्बोधित करते हुए संसार की अनित्यता पर कहा - "भाईयों सारा संसार क्षणभंगुर है । पानी के बुलबुले की तरह फूट जाता है । हम अनन्त जन्मों से इस जीवन को जीते रहे हैं । हमने अनेक बार अनेक ऊँचे पद और प्रतिष्टा सम्मन्न जीवन भी पाए | धन, कुटुम्ब, रूप ,शक्ति विद्या सब कुछ पाया । लेकिन आत्मतत्व को जाने बिना यह सब क्षणिक सिद्ध हुए । मरते समय कोई इस जीव को बचा नहीं सका । सारे कुटुम्ब परिवार के लोग । स्मशान तक के ही साथी रहे । संसार वैभव हमेशा पर पदार्थ की तरह छूटते रहे । धन-सम्पत्ति केपीछे हम हर प्रकार के पापों में जकड़े रहे। लेकिन वह धन भी साथ न गया । हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि हम इस गन्दे,रोग के घर ,बूढ़े हो जाने वाले और मरणधर्मा शरीर को सजाते रहे । हमने आत्मा का ध्यान ही नहीं किया । इस नश्वर देह को पकवान खिलाकर मादक बनाये रहे | आत्मा को भूले रहे । लेकिन अब हमें सद्गुरू की कृपा से यह ज्ञान प्राप्त हो गया है कि “ मैं अनित्य देह नहीं हूँ , परन्तु शाश्वत आत्मा हूँ | इसलिए अब मुझे इस शरीर और अनित्य संसार से दूर आत्मकल्याण में लगाना चाहिए। तपद्वारा कर्मों की निर्जरा करके मुक्ति प्राप्ति का उपाय करना चाहिए।'' महाराज विद्युच्चर के इन उपदेशों का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा । अनेक लोग उनके साथ दीक्षित हुए और अनेकों ने संयम के व्रत धारण किये । लोगों ने देखा कि सभी भौतिक सम्प्रदायों का भोग करने वाली देह जंगल के पथ पर प्रयाण कर रही है । अनेक लोग उनका अनुशरण कर रहे थे । महाराज विधुच्चर ने अपने संग के साथ अनेक प्रदेशों में विहार किया । अपने शास्त्रज्ञान और उपदेशों से सैकड़ों प्राणियों को सन्मार्ग दिखाकर उन्हें वैराग्य की ओर प्रेरित किया । वे स्वयं कठोर साधना द्वारा कर्मों का क्षय करते रहे । तपाराधना ,संयम और साधना से उन्हें अनेक सिद्धियाँ स्वयंभू प्राप्त हुई । उनकी आत्मा उत्तरोत्तर कर्म की मलिनता से घुलकर पवित्र बनती गई । "महाराज आप नगर में प्रवेश न करें । " चामुण्डा देवी ने तामलिप्तपुरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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