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Xxxxxxxx परीषह-जयीxxxxxxxx
“कोतवाल जी! आप की सुरक्षा और मंत्रीगण की कार्य निष्टा से राज्य में अमनचैन है । मेरे पुत्र भी अब राज्यकार्य में योग्यता प्राप्त कर चुके हैं । इसलिए मैं इस गृहस्थ जीवन का त्याग कर आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ होना चाहता हूँ । आप लोग मुझे सहर्ष इस पथ पर जाने की अनुमति देगे । आप लोग नये युवाराज को पुत्रवत् स्नेह देकर राज्य की सुख और समृद्धि के लिए कार्य करते रहेंगे । "
महाराज विद्युच्चर के इस कथन से सभी व्याकुल हो गए | महारानी रोने लगी । अनेक लोगों की आँखे छलछला आयीं । लेकिन महाराज की दृढ़ता के सामने सभी नतमस्तक थे । इन सब के आँसुओं को देखकर विद्युच्चर ने समझाया-“आप सब का दुःख मोह जनित है । हम लोग न जाने कितने भवों में कितनी बार मिले और बिछुड़ गए । मोह के इन्ही बन्धनों से हमें भव भ्रमण के कष्ट सहने पड़े । इस जन्म में भी उसी मोह के वशीभूत होकर दुःखी हो रहे हैं । मैं चाहता हूँ कि क्रमशः इस मोहपाश से मुक्त होकर हम आत्मकल्याण की ओर मुड़ें ।”
महाराज विद्युच्चर संसार त्याग कर वीतरागपथ का अनुशरण करने वाले हैं यह समाचार सारे राज्य में फैल गया । लोग इस त्याग की महिमा को निरखने के लिए ,अनुमोदना करने के लिए और प्रेरणा लेनेके लिए राजधानी की ओर चल पड़े । लोगों ने देखा कि महाराज विधुच्चर ने पंचपरमेष्टी प्रभु की पूजा अर्चना की और अपने बहुमूल्य वस्त्राभूषण का वैसे ही त्याग कर दिया ,जैसे सांप अपनी केंचुली उतार देता है । लोगों ने देखा कि कल का राजा आज फकीर बन गया । वस्त्राभूषणों से सुशोभित शरीर पूर्ण दिगम्बर अवस्था में शोभा दे रहा है । उनके चेहरे की कान्ति दमक रही है । लोगो ने आश्चर्य से निहारा कि सौन्दर्य वर्धक केशों का वे निर्ममता से लुंचन कर रहे हैं । मुँह से कोई दुःख वाचक शब्द नहीं निकल रहा है । चेहरे पर कोई विषाद नहीं है । उनके इस त्याग,दृढ़ता ,और मुनिवेष को देखकर चारों ओर से उनकी और जैनधर्म की महिमा का जय-जयकार गूंजने लगा।
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