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________________ * पगेपह-जयी.xxxkriti उसके इस परिवर्तित रूप ,उसके सौन्दर्य को देखकर राजा मुग्ध हो गए। विधुच्चर का असली रूप देखकर यमदण्ड दौड़कर उसके गले लग गया और दुःखी होकर उसे न पहचान सकने की अपनी गलती पर बार-बार क्षमा याचना करने लगा। ___ “राजकुमार विधुच्चर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम ने चोरी क्यों की और इतनी यातना क्यों सही । " महाराज ने अपनी जिज्ञासा दोहराई । महाराज मैं आपसे पहले निवेदन कर चुका हूँ कि हम दोनों मित्र अपनेअपने ज्ञान में पूर्ण हो चुके थे । हम दोनों को अपने ज्ञान का गर्व था ! एकबार मैंने मित्र से कहा था - "भाई यमदण्ड चोर कोतवाल से ज्यादा चतुर होता है । तब यमदण्ड ने गर्व से कहा था-"कोतवालं की नजर इतनी पैनी होती है कि वह चोर को पाताल से भी निकालकर ला सकता है । " तब मैंने कहा था - " यमदण्ड मैं इस चौर्य कार्य में कितना होशियार हूँ । इसका परीक्षण मैं तुमसे ही करवाऊँगा । जिस राज्य में या शहर में तुम कोतवाल होगे ,वही मैं उस स्थान पर उस बहूमूल्य वस्तु की चोरी करूँगा । जिसकी तुम जीजान से रक्षा कर रहे होगे।” इन्होंने भी कहा था-"ठीक है मैं भी उसी शहर की कोतवाली करते हुए अपनी जान की बाजी लगाकर भी रक्षा करूँगा । जहाँ तुम चोरी करोगे । " बस उसी परीक्षण की भावना से इन्हें अपनी चतुराई दिखाने के लिए यह सब किया ,और यह सिद्ध कर दिया कि इनकी संरक्षण विद्या से मेरी चोरविद्या अधिक सफल रही है। ___ “विद्युच्चर यह हमने मान लिया कि तुम चौर्य कर्म में हमारे कोतवाल से अधिक चतुर सिद्ध हुए हो । परन्तु एक बात समझ में नहीं आई । तुम जब चोरी करने में सफल हो गए थे ,तो तुम अपने मित्र को पहली ही बार में सबकुछ बता कर मार खाने से बच सकते थे ,फिर भी तुम मार क्यों खाते रहे ? " महाराज ने रहस्य जानने की भावना से पूछा । “महाराज यह मेरे जीवन का व्यक्तिगत कारण है । इसकी एक विशेष कहानी है.। श्रीमान एक बार मैं एक मुनि महाराज के दर्शनार्थ गया था । वहाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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