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Xxxxxxxx परीषह-जयी-xxxxxxxx एक आज्ञाकारी पुत्र की कर्तव्यनिष्टा को निभाते हुए उन्होंने पिता के चरण स्पर्श कर चले जाने की तत्परता बताई । वे धीरे-धीरे पिता के कमरे से बाहर हो गये। महाराज चित्रलिखित से जाते हुए बेटे की पीठ ही देखते रहे । आँखें छलछला आई । मन रो पड़ा । वे अपने आपको धिक्कारते रहे |
श्रेणिक कुमार के राज्य से जाते ही उपश्रेणिक महाराज का मन उदास रहने लगा । उन्हें श्रेणिक कुमार का विरह सताने लगा | उन्हें लगा कि संसार में माया ही सर्वविनाश का कारण है | दिन प्रतिदिन राजकाज ही नहीं संसार के प्रति उनकी उदासी बढ़ती गई । मोह घटता गया । उन्हें धर्मश्रवण-स्वाध्याय में शांति मिलने लगी । आखिर संसार की विषय वासना ,उन्हें कड़वी लगने लगी। राज्य भार सा लगने लगा । वैभव खोखले लगने लगे । विरक्ति ने आसक्ति पर विजय पाई।
आखिर योग्य मुहूर्त में प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राज्य का भार सौंप कर जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर वे जंगल में आत्मकल्याण हेतु गमन कर गये ।
पिता के आदेश का पालन करते हुए कुमारश्रेणिक .दक्षिणदेश में कान्ची नगरी में पहुँचे । अपनी बुद्धि एलं चतुराई से वे वहाँ के राजा के प्रिय और विश्वास पात्र बन गये । उन्होंने यह गुप्त रखा कि वे महाराज उपश्रेणिक के पुत्र हैं । एक मुसाफिर के रूप में अपना परिचय दिया । उनकी बुद्धि ,कार्यदक्षता एवं सूझबूझ का महाराज कान्चीपुर को बड़ा लाभ हुआ । कुमार श्रेणिक के दिन भी प्रसन्नता से कटने लगे।
चिलातपुत्र राज्य सिंहासन पर बैठा । अब पूरे राजगृह में उसका और उसकी माता तिलकवती का शासन चलने लगा । सबसे पहले उसने राज्य के ईमानदार अधिकारियों को हटा कर अपने चापलूसों को नियुक्त किया । वह अपना ध्यान राजकाज की जगह अपने भोगविलास पर अधिक देने लगा । सर्वत्र उसके चापलूसों का बोलबाला हो गया । वह बेरोकटोक अपनी हबस का शिकार भोलीभोली लड़कियों को बनाने लगा । हिंसात्मक शिकार खेलना .
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