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* परीषह-जयी -
* बद्धता से द्विधा में हूँ | फिर मुझे एक चिन्ता और भी है ? ''
"क्या महाराज ? "
" आप जानते हैं कि परीक्षण के मकसद को मेरे ,आपके एवं ज्योतिषीजी के उपारान्त कोई नहीं जानता है । पर ,यदि यह भेद खुल गया तो श्रेणिक अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए अपनी भजाओं की शक्ति का उपयोग कर सकता है। यदि ऐसा हो तो गृह कलह राज्य के पतन और प्रजा की पीड़ा का कारण बन जायेगा । दूसरे ,यदि चिलातपुत्र को यह विदित हो जाये कि इस परीक्षण के परिणाम से श्रेणिक का अहित भी कर सकता है । मंत्रीजी आप जानते हैं कि एक पिता होने के नाते मैं मुझे श्रेणिक भी प्रिय है । उसका अहित भी मेरे हृदय को कष्ट पहुंचता है ।" राजा उपश्रेणिक ने अपनी चिन्ता और ममता व्यक्त करते हुए कहा ।
“महाराज आपकी चिन्ता योग्य है ।" मंत्री ने कहा ।
"कोई उपाय किया जाना चाहिए कि कुमार श्रेणिक की जान भी खतरे में न पड़े और मेरी प्रतिज्ञा भी बनी रहे ।" ।
"महाराज एक उपाय है । आप कोई लांछन लगा कर कुमार श्रेणिक को राज्य से निकाल दें । इससे उनके प्राणों की रक्षा भी हो जायेगी और आप चिलातपुत्र को युवराज बना कर अपनी प्रतिज्ञा भी पूर्ण कर सकेंगे। "महामंत्रीने अपनी चाणक्य बुद्धि से सलाह दी । ___रातभर राजा उपश्रेणिक इस योजना पर विचार करते रहे । उन्हें पुत्र को राज्य से निकालने की पीड़ा सता रही थी । पर और उपाय भी नहीं था । आखिर उन्होंने यही उपाय योग्य माना । प्रातःकाल उन्होंने कुमार श्रेणिक को बुलावा कर आदेश दिया – “कुमार बड़े शर्म की बात है कि तुमने उस दिन कुत्तों की जूठी खीर खाई । तुम भोजन के इतने लालची बन गये कि विवेक भी चूक गये ! "
"पिताजी यह सच नहीं हैं । "
"तुम मुझे झूठा कहते हो । मेरा अपमान करते हो । मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम मेरे राज महल और राज्यको छोड़कर चले जाओ।" राजा ने कृत्रिम क्रोध व्यक्त किया।
__कुमार श्रेणिक को अपनी सफाई में कुछ भी कहने का मौका नहीं मिला।
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