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परीपह-जयी
मारे सभी राजकुमार पत्तलें छोड़कर भाग खड़े हुए । पर राजकुमार श्रेणिक नहीं भागे । उनकी शीघ्र बुद्धि ने उनकी मदद की । उन्होंने झटपट कुछ पत्तलों को उठाकर ऊँचे स्थान पर रख दिया और कूद कर सिंहासन पर बैठ गये । वहीं से जोर-जोर से नगाड़ा बजाने लगे । इस नगाड़े की ध्वनि से कुत्तों का ध्यान उस ओर बँट गया । श्रेणिक कुमार ने जो पत्तले उठाकर ऊँचाई पर रखी थी उनमें से एक एक पत्तल को नीचे फेंकने लगे जिससे कुत्ते फेंकी गई पत्तल पर झपटने लगे । वह एक एक पत्तल फेंकते और कुत्तों को उलझाये रखते । कुत्ते आपस में भौं-भौं कर लड़ते-झपटते पत्तलों को चांटते और श्रेणिक आराम से सिंहासन पर बैठ कर अपनी खीर खाते रहे । इस प्रकार बुद्धि चातुर्य से श्रेणिक ने अछूती खीर का भरपेट भोजन किया । कुत्तों की लड़ाई भी देखी और अपनी बुद्धिमानी का परिचय दिया ।
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इसी प्रकार कुछ दिनों पश्चात दूसरा परीक्षण भी किया गया । पूर्वयोजनानुसार महल के एक भाग में सिंहासन, छत्र, चँवर रखवा दिए गये । सभी राजकुमारों को राज्य की चर्चा के बहाने एकत्र किया गया । जब किसी चर्चा में लीन हो रहे थे तभी एकाएक उस कमरे में निर्धारित योजना के अनुसार आग लगवा दी । आग लगने की चिल्लाहट सुनते ही सभी राजकुमार अपनी जान बचाने के लोभ में सिर पर पांव रखकर भागने लगे । पर कुमार श्रेणिक ने ऐसा नहीं किया । उन्होंने धैर्य रखते हुए सूझ-बूझ से काम लिया । हिम्मत करके पहले सिंहासन, छत्र चँवर राज्यचिन्हों को बाहर निकाला, और फिर स्वयं सुरक्षित बाहर निकल आये ।
इन दोनों परीक्षणों में श्रेणिक ही श्रेष्ट एवं युवराज पद के योग्य साबित हुए । चिलातपुत्र तो डरपोक ही निकला । राजा बड़ी परेशानी में फँस गये । वे चिलातपुत्र के लक्षणों से चिंतित तो थे ही । उन्हें भी लगता था कि चिलातपुत्र राज्य में अशांति ही फैलायेगा । उनका मन भी श्रेणिक को 'युवराजपद देने का था । पर वे वचनबद्ध थे । अतः दुविधाग्रस्त थे ।
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"महाराज चेहरे पर चिन्ता की रेखायें क्यों ? महामंत्रीजी ने जिज्ञासा से पूछा ।
"मंत्रीजी आप जानते हैं कि दोनों परीक्षणों में श्रेणिककुमार ही सफल हुए है । वे योग्य भी हैं । मैं भी उन्हें ही युवराज बनाने के पक्ष में हूँ । पर वचन
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