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________________ xxxxxxxxx परीषह-जयी Xxxxxxxx शराबपीना और अय्यासी करना उसका जीवन क्रम बन गया । लोगों में उसकी दहशत फैल गई । व्यापारी अपनी जानमाल के लिए चिन्तित हो उठे । राज्य में और राजमहल में किसी की इजत सुरक्षित नहीं थी । सभी लोग भयभीत रहने लगे । परिणाम स्वरूप लोगों के हृदय में चिलातपुत्र के प्रति नफरत उमड़ने लगी। लोगों को राजा के साथ राज्य से भी घृणा होने लगी । राष्ट्रीयता के भाव घटने लगे । लोगों को चिन्ता तो अपनी जात, इज्जत और मालकी सताने लगी । लोग अनुभव कर रहे थे कि रक्षक ही भक्षक बनने लगा । प्रजा दुखी हो रही थी । चिलातपुत्र के इस अन्याय अत्याचार ने प्रजा में घृणा और रोष जन्मा दिया था । विद्रोह की चिनगारी अंदर ही अंदर शोला बन रही थी । वह किसी भी समय भड़क सकती थी । मंत्रियों, राज्य के पुराने सेवकों एवं कुशल मंत्रियों ने चिलातपुत्र को समझाने की कोशिश भी की, पर सब बेकार | उल्टे चिलातपुत्र के कोप का उन्हें भाजन बनना पड़ा । . राज्य के कुछ वफादार लोग आखिर राज्य को छोड़कर पता लगाते हुए कुमार श्रेणिक के पास कान्चीपुर पहुँचे । ___ "कुमार राज्य पर घोर संकट छाया हुआ है । प्रजा जुल्म के पाँव तले रौंधी जा रही है । किसी की भी इज्जत सलामत नहीं हैं। '' रो रोकर लोगो ने चिलातपुत्र के अत्याचारों को सुनाया । “ठीक है । आप लोग निश्चित होकर जाइए । मैं शीघ्र अपने विश्वस्त साथियों-सैनिकों के साथ राजगृही पहुचूँगा । प्रजा से कहें कि वे चिन्ता मुक्त होकर भयमुक्त होकर मेरा साथ दें । '' आश्वासन देकर कुमार श्रेणिक ने प्रजाजनों को विदा किया । ___ चंद दिनों बाद ही कुमारश्रेणिक अपने चुने हुए सैनिकों के साथ राजगृही पहुँचे । उनके आगमन के समाचार ने प्रजा में नई उमंग भरदी । पुराने मंत्रीगण,सैनिक एवं समस्त कुमार श्रेणिक के साथ हो गये । विशाल जनमत उनके साथ हो गया । कुमारश्रेणिक राज्य में लौट आये हैं । सारी प्रजा उनके साथहो गई । यहसमाचार सुनकर चिलातपुत्र चिन्तित हो उठा । उसने कुमार श्रेणिक के विरूद्ध युद्ध करके उसे खदेड़ने की योजना भी बनाई । पर ,उसके गुप्तचरों ने प्रजा का मानस ,श्रेणिक के प्रति उनकी वफादारी और सहयोग के समाचार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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