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Xxxxxपरीषह-जयीxxxxxxxxx उन्होंने यमदंड की शर्त का स्वीकार करते हुए यह वचन दे दिया कि विवाह के पश्चात तिलकवती ही पटरानी होगी और उसका पुत्र ही राज्यका भावि महाराजा होगा।
महाराज की इस वचनबद्धता पर विश्वास कर यमदंड भील ने अपनी कन्या का विवाह उपश्रेणिक महाराज से कर दिया ।
महाराज सोचने लगे कैसा संयोग वे हवाखोरी के लिए निकले थे । उनका घोड़ा बहक गया था । और लाख सम्हालनेके बाद भी इस घोर जंगल में आ गया था । रात्रि हो चुकी थी । वे मार्ग भूल गये थे । उन्होंने सामने दीपक के प्रकाश को देखकर इस ओर आये थे । उन्होंने आश्रय के लिए दरवाजा खटखटाया था।
“कौन है ? " एक सुरीला कंठ गूंज उठा था । "मैं हूँ एक पथ भूला मुसाफिर ।
दरवाजा खुल गया था । दरवाजा खोलने वाली रूपांगना को देखकर मुसाफिर चित्रलिखित सा ,ठगा सा खड़ा रह गया था । कन्या भी इस वृषभकंधो वाले बलिष्ट ,खूबसूरत ,गौरवपूर्ण युवक को देखकर ठगी सी रह गई थी। दोनों खो गये थे एक दूसरे में । क्षण गुजर रहे थे । आँखे चार हुई थीं पर दिल की धड़कन एक हो गई थी । मन ही मन दोनों एक दूसरे को समर्पित हो गये थे । आँखें मौन स्वीकृति दे रही थीं।
“कौन है बेटी । " एक स्वर दोनों में व्यवधान डाल गया ।
चौक पड़ा मुसाफिर और चौक पड़ी षोड्सी । एक बलिष्ट काला सा अधेड़ वय का भील इतने समय में बाहर आ चुका था । उसने जिज्ञासा और आश्चर्य से नवागंतुक के सामने देखा । कन्या घर में चली गई।
“मैं हूँ राजगृही का राजा उपश्रेणिक । घोड़े की दुष्टताने इस जंगल की भूल भूलैया में भटका दिया है । रात्रि का समय होने से एक रात्रि के विश्राम हेतु आया हूँ | क्या आश्रय मिलेगा | " मुसाफिर ने अपना परिचय देते हुए कहा।
___ “क्षमा करें महाराज । मैं रात्रि के अंधेरे में आपको पहचान न सका । पधारें आपने तो यहाँ पधार कर मेरी प्रतिष्टा ही बढ़ाई है । मैं तो चाहता हूँ कि आप कुछ दिन मेरे घर, इस वन को कृतार्थ करें ।
भीलराज ने महाराज का उचित प्रबंध किया । उनकी सेवा का भार
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