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________________ Xxxxxxxxपरीषह-जयीxxxxxx बनाना था । और साथ ही धर्म के नाम पर लोगो को छल कपट से ठगने वाले धर्माचार्यो की सही स्थिति आप के सामने रखनी थी। " पुन:श्च उन्होंने कहा - "बैद्ध धर्म राज्याश्रय पाने के कारण अह्म से पीड़ित है । संकुचितता की दीवारों में कैद हो गया है । वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु नही रहा है । यहाँ तक कि वह बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करने वाले जिज्ञासुओं का वध कराने में नहीं हिचकिचाता। "अकलंक देव ने इस प्रकार अपने जीवन की कूरण घटना को भी कह सुनाया । जिसके कारण उन्हें अपने भाई को शहीद कर देना पड़ा था और स्वयं वर्षो अज्ञातवास भोग कर जैन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए जूझते रहे थे । अकलंक देव आज सबसे अधिक प्रसन्न थे कि वे अपने उद्देश्य में सफल हो सके। यद्यपि वे अब संसार से विरक्त साधु थे, परन्तु निकलंक की शहादत ने उनकी आँखों के कोने भिगो दिये । ___ महाराज और महारानी ही नहीं ,संघश्री भी अकलंक देव के चरणों में नतमस्तक था । उसे अपनी धूर्तता पर दुःख था और वह लज्जित था, लेकिन अकलंक देव ने उसे भी गले लगाकर क्षमा किया जैन धर्म की विजय के समाचार वायुवेग से पूरे शहर में फैल गए । रूके हुए रथ की घण्टियां बज उठीं । संगीत के स्वर आकाश में गूंजने लगे । मणि-रत्नों से सजे हुए रथ में भगवान की मूर्ति दमक रही थी । “जैनाद " का उद्घोष गूंज रहा था । रथ के पीछे चारणों का यशोगान हो रहा था । और महिलाओं के मंगलगीत की ध्वनियाँ विखर रही थीं। पुष्प वर्षा हो रही थी । रथयात्रा बड़े ही गौरव से सम्पूर्ण हुई । रानी ने मुक्त हाथों से दान किया । इस प्रकार अपने जीवन में ,अपने धर्म की प्रतिष्ठा को प्रस्थापित होते देख, भगवान अकलंक को पूर्ण तृप्ति हुई । उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की जो आज भी हमारे मार्गदर्शक हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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