SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -*-*-*-*-*- परीषह-जयीxxxxxxxxxx वरदान होता है कि वे किसी प्रश्न का उत्तर एक ही बार में दे सकते हैं । तुम उस देवी से अपने प्रश्न को पुनः दोहरा कर पूछोगे तो वह निरूत्तर हो जायेगी । और संघश्री का भाड़ा फूट जाएगा।" ___ अकलंक देव आज अत्यन्त प्रसन्न थे,उन्हें विश्वास था कि आज वे संघश्री की पोल तो खोलेंगे ही, बौद्ध धर्म के इस छल-कपट का पर्दाफाश भी करेंगे । साथ ही जैन धर्म की विजय पताका फहरायेंगे । वे इस दृढ़ निश्चय के साथ शास्त्रार्थ भवन में पहुँचे । नित्य की भाति चर्चा प्रारम्भ हुई । देवी के माध्यम से संघश्री ने प्रश्र किया । "श्रीमान मैं आपके इस प्रश्न को सुन नहीं सका हूँ ,कृपया प्रश्न को पुनः दोहराएँ।' चक्रेश्वरी के निर्देशानुसार अकलंक देव ने वैसा ही किया । देवी तारा दूसरी बार उस प्रश्न न कर सकी और मौन रह गयी । संघश्री कोई उत्तर नहीं दे सके तो पर्दा हटाया गया ,संघश्री की पराजय की घोषणा हो गयी । चारों ओर जैनधर्म का जयजयकार होने लगा । महाराज ने उठकर अकलंक देव की वन्दना की। "महाराज अभी आपकों मैं एक वास्तविक सत्य से परिचित कराना चाहता हूँ , वास्तव में इतना लम्बा शास्त्रार्थ संघश्री नहीं कर रहे थे ,परन्तु पर्दे के पीछे इनकी इष्टदेवी तारा ही शास्त्रार्थ कर रही थी। " "यहाँ तो कोई देवी दिखाई नहीं देती " राजा ने आश्चर्य से पूछा । " अकलंक देव ने अभी बताता हूँ ।" कह कर घड़े को फोड़ दिया, जिसमें तारा देवी को छिपाया गया था । देवी घड़ा फूटते ही भागकर अदृश्य हो गई । संघश्री की पोल खुल गई । तब गुरू गंभीर वाणी में अकलंक देव ने कहा - "महाराज और उपस्थित सज्जनों मैं पहले ही दिन संधश्री को परास्त कर देता ,लेकिन इतने लम्बे समय तक शास्त्रार्थ करने का उद्देश्य जैन धर्म के सिद्धान्तों से आपको परिचित कराना था । उसकी महत्ता को आपको समझाना था । दर्शनज्ञान और चारित्र की महान विभूति से युक्त जैनागम के प्रति आपको श्रद्धावान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy