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परीषह - जयी
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'अरे! यह क्या ?" सुकोशल मुनि का भक्षण करते समय उसने मुनि के
शरीर के लक्षण देखे.. और उसे जाति स्मरण हो आया।
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'अरे! ये तो मेरा पूर्व भव का पुत्र सुकोशल है । मैंने अपने ही बेटे का भक्षण कर लिया ? जिस बेटे को मैंने जी-जान से चाहा था, जिसके लिए मैंने अपनी जानतक न्यौछावर कर दी। उसी का भक्षण कर रही हूँ। जिसकी छोटी से वेदना, मुझे पीड़ा देती थी- आज उसी की मौत का कारण बनी। मैं सचमुच डायन सिद्ध हुई" इसप्रकार पश्चाताप करते हुए उसे अपनी पूर्वजन्म की मृत्यु का ध्यान हो आया । उसे स्मरण हुआ कि पुत्र मोह के कारण वह आर्तभावों को धारण कर मरी थी । उसने उसीसमय यह कुसंकल्प किया था कि वह पुत्र को छीनने वाले पति से किसी भी जन्म में बदला लूँगी। यह कुध्यान उस पशुयोनि में ले आया । अरे! कहाँ मैं नगर की धन सम्पन्न सेठानी जयावती और कहाँ इस जंगल की हिंसक व्याधी । सचमुच ये मेरा दुर्भाग्य है। मैंने अपने पति को खा कर महान पाप का कर्म किया है। अरे! वे तो सच्चे जैन धर्म के अनुयायी थे । आत्मोद्धार के लिए ही घर सम्पत्ति का त्याग किया था । मैं उनकी अर्धांगिनी होकर ही उनकी दुश्मन बन गई थी। यह सब मेरे अशुभ कार्यों का ही फल था । मैं मोहांध में अंधी सत्य को न परख पाई। पति तो पति प्रिय पुत्र की भी जन्मदात्री ही उसकी भक्षिका बन गई।'
व्याघ्री को संसार से वैराग्य हो गया । वह पथ भूली पुनः सत्पथ पर लौटी। पर बड़ी देर हो चुकी थी। पति और पुत्र दोनों को खाकर - खोकर ।
व्याघ्री की आँखों से जल धारा की गंगा बह चली। लगता था अंतर के पाप धुल रह नयन जल बनकर बाहर निकल रहे हैं। उसी समय वहीं समाधि मरण धारण कर लिया । वह सन्यासिनी ही बन गई। उसे अब जैसे अपने तीनों बच्चों से कोई मोह ही नहीं थी । वह आँखे बन्द किए प्रभु ध्यान में लीन हो गई थी । व्याघ्री के तीनों बच्चे माँ के चारों ओर चक्कर काट रहे थे, पर वह देह से मानो मुक्त हो गई थी। कई दिन गुजर गए थे, उसने अन्न, पानी का सर्वथा त्याग किया। समाधि मरण का स्वीकार कर धर्म ध्यान करती हुई, अपने पापकर्मों का क्षयकर स्वर्ग की प्राप्ति
की ।
सुकोशल ने अन्तिम समय उपसर्ग विजयी बनकर सर्वार्थ सिद्धि में देव बनकर सुखों को प्राप्त किया।
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