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________________ Xxxxddrdपरीषह-जयीxxxxxxxx लगी। पति वियोग को तो वह इस आशा से सहन कर पाई थी कि पुत्र का मुँह देखकर जी लेगी। पर, युवास्था में ही पुत्र का इस तरह गृहत्यागना उसे असह्य लगा सुकोशल ने गृहत्याग किया। वह पागल सी हो उठी। वह दुख और आर्तता के कारण उसने खाना-पीना तक छोड़ दिया । चौबीस घंटों उसे पुत्र की याद सताती। वह जब तक जीवित रही पुत्र के वियोग में दुखी रही। चिन्ता और दुख से वह आर्तध्यान में ही मृत्यु की शैय्या पर चिरनिद्रा में सो गई। अंतिम समय भी उसका चित्त धर्म की ओर नहीं मुड़ा। बुढ़ापा तो बिगाड़ा ही। मृत्यु भी बिगड़ गई। मगध के मौदगत पर्वत की कंदरा में एक व्याधी अपने तीन बच्चों के साथ निवास करती थी। व्याधी अपने बच्चों के साथ भोजन के लिए शिकार की तलाश में घूम रही थी। घने जंगल में वह शिकार की खोज में विचरण कर रही थी कि उसे मनुष्य-गंध ने आकर्षित किया। उस गंध का अनुशरण करते हुए वह उस ओर चली। उसने देखा दूर स्वच्छ शिला पर दो मनुष्य देह नग्नावस्था में बैठे हैं। ये दो नग्न देह थे मुनि सिद्धार्थ और मुनि सुकोशल के। दोनों भ्रमण करते हुए , विहार करते हुए इसी जंगल से गुजर रहे थे। संध्या हो जाने से आगे जाना वर्ण्य होने से वे वहीं स्वच्छ शिला पर सामायिक में ध्यानस्थ हो गये थे। ध्यान में वे देह से सर्वथा मुक्त आत्मा में लीन हो गये थे। देह से देहातीत बन गये थे। - व्याघ्री और उसके बच्चे दोनों मुनिराजों पर झपट पड़े। उनके शरीर को नोंच-नोंचकर खाने लगे। मुनिद्वय के शरीर से रक्त की धारा बह चली। शरीर से माँस के लोथड़े गिरने लगे। शरीर क्षत-विक्षत हो रहा था। इधर शरीर नष्ट हो रहा था- उधर दोनों मुनि शरीर के मोह से सर्वथा मुक्त आत्मा में सर्वथा लीन हो गये थे। परीषह को कर्मक्षय का अवसर मानकर निर्लेपभाव से सहन कर रहे थे। मुनि सिद्धार्थ देह को त्याग कर सर्वार्थ सिद्धि में देवत्व पा चुके थे। व्याधी तो अब लाश को ही चीथ रही थी। सुकोशल मुनि भी अपना संबंध परमात्मा से जोड़ चुके थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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