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________________ Xxxxxxxx परीषह-जयी**** धर्मोषधि की प्राप्ति हुई है। प्रिय सुभद्रा ! तुम्हारे गर्भ में शिशु पल रहा है। यह मेरी मुक्ति का ही संकेत है। बालक का मोह मुझे बाँध नहीं सकता। उसने तो मुझे स्वतंत्रता का संकेत दिया है। मैं संतान के अभाव में शायद इस गृहस्थजीवन में अटका रहता- अब उस शल्य से भी मुक्त हुआ। __मैं अपने गर्भस्थ शिशु को अपने सेठ का पद प्रदान करता हूँ और स्वयं को इस श्रेष्ठीपद से मुक्त करता हूँ। कहते-कहते सुकोशल अपने बहुमूल्य आभूषण और वस्त्रों का त्याग करने लगे। जयावती, सुभद्रा एवं अन्य पलियाँ, हवेली के कर्मचारी सभी रूदन करने लगे। पर, आँसुओं की धारा उन्हें प्रभावति न कर सकी। "बेटा ! यह पथ बड़ा कठिन है। तुम्हारी कोमल देह वर्षा, आतप व शांति कैसे सहेगी ? नंगे पाँव छिल जायेंगे। भूख कैसे सहन करोगे। भूमि शयन यह शरीर कैसे झेलेगा?" माँ ने रोते हुए मुनि को पड़ने वाले कष्टों का भय दिखाया। "माँ! जन्म-मरण, बुढ़ापा, रोग, से बड़ा कष्ट क्या होगा, जिसे हम जन्म जन्मातर से भोग रहे हैं। माँ जन्मजन्मान्तरों से भी कभी यह भूख मिट सकी है? शरीर का सुख तो इस पुद्गल का सुख है। मुझे अब इस नष्ट होने वाले मरण-धर्मा शरीर से कोई मोह नहीं। जब मैं शरीर से मोह ही नहीं रखूगा - फिर कष्ट क्या होगा?" कहकर सुकोशल घर की माया को तृणवत त्याग कर उस उद्यान की ओर चले जहाँ मुनि सिद्धार्थ रूके हुए थे। सारे नगर में चर्चा वायुवेग सी फैल गई। जिसने सुना उसने दाँतों तले ऊँगली दबा ली। सभी परिजन-पुरजन सभी सुकोशल के नए वेश को देखने उमड़ पड़े। सबने देखा कल का राजकुमार आज का मुनिवेश धारण कर अधिक तेजस्वी लग रहा है। नासाग्र दृष्टि से मानों वह निज के स्वरूप को ही परख रहा हो। पुत्र के इस तरह योग धारण करने से जयावती मानों क्रोध और घृणा से पागल हो उठी। वह धर्म की महिमा को समझने के बजाय उससे और भी द्वेष करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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