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________________ Arrrrrrr परीषह-जयी * 4 भट्ट अकलंक देव मान्यखेट नगर के उद्यान में मुनि श्री चित्रगुप्त विराजमान थे। लोग उनके दर्शन प्रवचन से धन्यता का अनुभव कर रहे थे। इन्हीं महाराज के दर्शन करने राज्य के मन्त्री पुरूषोत्तम अपनी पत्नी पद्मा एवं पुत्र अकलंक और निकलंक के साथ आए। महाराज को वन्दन कर, आशीर्वाद प्राप्त किया। और धर्म श्रवण का लाभ प्राप्त करने लगे। अष्टाह्निका पर्व के शुभ दिन चल रहे थे। महाराज श्री अष्टाह्निका पर्व के महत्त्व को समझा रहे थे। और श्रावकों को व्रत नियम के महत्त्व से अवगत करा रहे थे। महाराज ने पंच महाव्रतों के पालन और उससे प्राप्त उपलब्धियों की महत्ता समझाते हुए ब्रह्मचर्य व्रत की सविस्तार चर्चा की। शीलव्रत मानव को कितना महान और दृढ़, तेजस्वी और शक्तिशाली बनाता है उसके अनेक उदाहरण दिए। ब्रह्मचर्य मनुष्य को भोग-विलासों से बचाता है। चरित्र निष्ट बनाता है, और इसकी साधना करते हुए, व्यक्ति ब्रह्म अर्थात् आत्मा में स्थिर होने लगता है। ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है। मुनि महाराज ने सीता, सुदर्शन शेठ, अन्जना, सती मनोरमा जैसे ब्रह्मचर्य के पालकों के उदाहरण देकर उसकी महत्ता और उपलब्धि को समझाया। "महाराज ने उनके मस्तक पर पीछीं रखते हुए व्रत का संकल्प कराया। मन्त्री के साथ उनके दो बेटे अकलंक और निकलंक जो किशोर वय के थे, उन्होंने भी जिज्ञासा वश माता और पिता का अनुशरण करते हुए महाराज श्री से ब्रह्मचर्य व्रत प्राप्त किए। मन्त्री और उनकी पत्नी बच्चों के इस अनुकरण पर प्रसन्न थे और हंस भी रहे थे कि ये बालक ब्रह्मचर्य का मतलब ही नहीं समझते मात्र हम लोगों की देखा-देखी व्रत ग्रहण कर रहे हैं। पर उन्हें संतोष था कि उनके बेटे धर्मपथ के अनुयायी बन रहे हैं। वे चरित्रवान बनेंगे। यह बात उन्हें रूचिकर लगी।" अकलंक और निकलंक बड़े ही मेधावी छात्र छे। दोनों ने मन लगाकर विद्याध्ययन किया। उन्होंने जैन धर्म और दर्शन के साथ व्यावहारिक विद्याओं का अध्ययन किया। वे षट्दर्शन में पारंगत हुए। उनके बुद्धि-कौशल और रूप-सौंदर्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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