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-*-*-*-*-*-*-*-परीषह-जयीxxxxxxxx निकलवा देती। उसने सोचा कहीं बेटा मुनि की ओर आकर्षित न हो जाये - अतः .. उसका हाथ पकड़कर अंदर चलने का आग्रह करने लगी।
___ "माँ! मुझे तो ये पागल नहीं लगते । उनकी कोई हरकत ऐसी नहीं लगती। मुझे तो उनके चहेरे पर तेजस्विता दिखाई दे रही है। लोग उनकी जय-जयकार कर रहे हैं। फिर आप उन्हें पागल क्यों कहती है?" सुकोशल ने हाथ छुड़ाते हुए कहा।
जयावती के ये शब्द कि 'यह कोई पागल है' वहाँ खड़ी सुकोशल की धाय से न रहा गया। वह जानती थी कि ये मुनिराज सिद्धार्थ हैं। सेठानी द्वेष वश ऐसा कह रही हैं। उसने कहा - "स्वामिनी आप क्या कह रही हैं ? ये तो आपके स्वामी हैं। आपके पूज्य हैं, मुनि होने के नाते आपको इनकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। आपको इनकी वन्दना करनी चाहिए। आप इसप्रकार के झूठे आरोप से पाप कर्म को ही बाँध रही है।"
"तू चुप रह ।" धाय को डाटते हुए सेठानी ने उसे झिड़क दिया। और सुकोशल का हाथ पकड़कर उसने कमरे में ले गई। अन्दर ले जाकर भी वह उसे अपने ढंग से समझाती रही। सुकोशल की माँ की बात तो सुनता रहा, पर उसका मन सन्तुष्ट नहीं हुआ।
"चलो बेटा, खाना खाओ! क्यों तुम एक पागल के लिए परेशान होते है?" जयावती ने सुकोशल से भोजनशाला में चलने का आग्रह किया।
"नहीं माँ, मैं खाना नहीं खाऊँगा। जब तक तुम मुझे उन दिगम्बर व्यक्ति के बारे में सच्चा हाल नहीं बताओगी" सुकोशल ने हठ करते हुए कहा।
"बेटे जिद्द नहीं करते । तुम बेकार ही एक नंगे के लिए परेशान हो रहे हो।" अपने रोष को दबाते हुए जयावती ने पुनः समझाते हुए कहा।
लेकिन जयावती का समझाना बेकार गया। सुकोशल ने जैसे दृढ़ निर्धार कर लिया था कि जब तक वह, सत्य का पता नहीं लगा लेता तब तक अन्न ग्रहण नहीं करेगा। और वह इसी दृढ़ता पर अड़ गया। सेठानी ने उसे हर तरह मनाया, समझाया पर वह टस से मस नहीं हुआ। अन्त में नाराज होकर जयावती कमरे से बाहर चली गई। सुकोशल की इस जिद्द ने जयावती के मन में मुनि के प्रति और भी घृणा के भाव बढ़ा दिए। उसका मन में रह-रहकर रोष बढ़ रहा था। उसने क्रोध के आवेग में आकर भले-बुरे शब्दों का प्रयोग भी किया। उसे यह भय सताने लगा कि
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