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________________ परीपह-जयी कहीं उसका पुत्र भी घर न छोड़ दे । क्रोध में भरी जयावती उस कमरे से पैर पटकती हुई बाहर चली गई। सुकोशल का मन माँ के इस व्यवहार से और भी दुःखी हो उठा। उसकी जिज्ञासा उस पुरूष के बारे में जानने के लिए और भी अधिक बलवती हो गई । धाय सुनन्दा ने सुकोशल के चहेरे पर जिज्ञासा के भाव देखे । उसने सुकोशल को सारी कथा सुनाते हुए कहा - "बेटा, तुमने प्रातःकाल जिन दिगम्बर वेशधारी पुरुष को देखा है वे तुम्हारे गृहस्थ जीवन के पिता हैं । जिन्होंने इस अपार वैभव को तृणवत त्याग दिया। जो आत्म कल्याण के मार्ग पर सब कुछ छोड़कर दिगम्बर वेशधारी बने । वे अब पाद बिहारी है। जीवन, साधना में लगा रहे, अतः केवल एक बार निरन्तराय भोजन अंजुलि में ही लेते हैं। वे तपस्या की उस श्रेणी में पहुँच गए हैं, जहाँ शरीर का कष्ट गौण हो जाता है। आत्मध्यान में ही आनन्द रस झरने लगता है । वे जन्म-मरण, रोग, बुढ़ापा इन कष्टों से मुक्त होने की साधना से जुड़ गये हैं । वे सच्चे गुरू हैं। जो स्वयं मुक्ति मार्ग पर चल रहे हैं, वे भव्यजीवों को मुक्ति का मार्ग बतला रहे हैं । " 44 'धाय माँ, फिर माताजी उन्हें अपमानजनक शब्दों से क्यों सम्बोधित कर रही हैं?" सुकोशल ने जिज्ञासा और आश्चर्य से धाय माँ से पूछा । "बेटा, तुम्हारे जन्म लेते ही तुम्हारे पिता सिद्धार्थ वैराग्य धारण कर मुनि हो गए थे। तुम्हारी माँ उन्हें रोकना चाहती थीं, वे नहीं मानें, यही क्रोध - भाव उन्हें सताता रहा। इतना ही नहीं, मोह और अज्ञान के वश वे जैन धर्म और जैन गुरुओं के प्रति घृणा भाव से भर गई। उन्हें मुनियों से चिढ़ हो गई। उनका क्रोध बैर में बदल गया । यही कारण है कि आज मुनिजी को देखकर उनका क्रोध भड़क उठा " सुकोशल ने मौन रहकर सम्पूर्ण परिस्थिति को जाना सोचा और समझा । उसे अपनी माँ के इस व्यवहार से दुःख हुआ । गुरूओं के प्रति अपमान जनक शब्द को 'सुनकर उसके हृदय में चोट पहुँची । मोह के वश हम सच्चे देव - शास्त्र और गुरू के प्रति भी द्वेषभाव रखने लगते हैं इसका उसे ज्ञान हुआ। उसे मन ही मन मुनिश्री के दर्शन की तीव्र आकांक्षा हुई और उसी समय वह उनके दर्शनों के लिए चल पड़ा। सुकोशल भक्तिभाव से उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ पर मुनि सिद्धार्थ विराजमान थे। ज्यों-ज्यों वह मुनि के समीप पहुँचता जाता था, त्यों-त्यों महसूस करता था कि उसके हृदय में भक्ति की धारा बह रही है जो आँखों के माध्यम से Jain Educationa International ३६ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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