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परीषह - जयी
जयावती को अब विश्वास हो गया था कि उसका बेटा भोगों में बराबर रम चुका है। बहुओं के कह कहे उनके हृदय को गुदगुदाते रहते थे । वे प्रसन्न थीं कि उनका बेटा उनके बनाये रास्ते पर चल रहा है।
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"माँ... यह नग्न व्यक्ति कौन है ? उसके हाथ में सिर्फ पींछी कमण्डल है । उसके साथ कई लोग चल रहे हैं।" एक नंगे व्यक्ति को देखकर सुकोशल ने जिज्ञासा से अपनी माँ से पूछा । सुकोशल को पता ही कहाँ था कि ये जैनमुनि हैं । उसे कभी उनके दर्शन ही नहीं कराये गये थे । फिर सुकोशल ने नंगा व्यक्ति भी तो नहीं देखा था इससे पूर्व ।
आज प्रातः काल की बेला में जब रश्मिरथी आकाश मार्ग में विहार कर रहे थे, किरणों के अश्व आकाश मार्ग में बढ़ रहे थे, पक्षियों का कुल - कुल संगीत गूँज रहा था, हवा में पुष्पों की गंध लुभा रही थी, मंदिर के घंटों की आवाज में पवित्रता के स्वर गूँज रहे थे उसी प्रातः काली बेला में हवेली की छत पर सुकोशल अपनी पत्नियों और माँ के साथ इस प्रकृति के सौन्दर्य को निहार रहे थे । तभी उनकी दृष्टि नीचे राजपथ पर पड़ी जहाँ से उन्होंने इस नग्न व्यक्ति को देखा
था।
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जयावती ने नीचे देखा कि अरे! ये तो मेरे पति सिद्धार्थ हैं मुनि सिद्धार्थ वर्षों देश के अनेक नगरों से विहार करते हुए आज अयोध्या पधारे थे। उनके आगमन के समाचार से श्रावकों में भक्ति की भावना उमड़ पड़ी थी। नगर के लोग उन्हें स्वागत के साथ नगर में प्रवेश करा रहे थे । वे उनकी और धर्म की जयजयकार बुला रहे थे।
मुनि और फिर गृहस्थजीवन के पति मुनि सिद्धार्थ को देखकर जयावती के मन में श्रद्धा की जगह क्रोध उमड़ पड़ा। उनके संस्कारों में सोया बैरभाव जाग उठा। घृणा के भाव उनके चेहरे पर छा गये। आँखों में क्रोध का खूनी रंग दौड़ गया। विवेक खो बैठीं । सत्य को ढँककर उसी उपेक्षा से बोली "बेटा! यह कोई पागल है। देखते नहीं यह भीड़ उस पागल को खदेड़ने के लिये उसके पीछे चल रही है। जयावती ने झूठ बोलकर सुकोशल को समझाने का प्रयत्न किया ।
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जयावती के हृदय में रोष का बवंडर उठ रहा था । उसे सिद्धार्थ मुनि पर रोष बढ़ रहा था। आँखों में खून उतर रहा था । उसका बस चलता तो वह उन्हें नगर से
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