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________________ Xxxxxxxx परीषह-जयीxxxxxxxx रहे थे । मुनि श्री का प्रवचन प्रारम्भ हुआ :--- "पुण्यात्माओं ,भगवान जिनेन्द्र के बताये हुए मार्ग पर चलने से ही सच्चे सुख की प्राप्ति सम्भव है । संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । पर सच्चा सुख भौतिक पदार्थों में नहीं । ये समस्त सुख तो पुण्य का उदय है ,और पुण्य भी चतुर्गति का कारण है । अनन्त सुख या चिर सुख तो पुण्य और पाप से ऊपर उठ कर जन्म-मरण से मुक्त होने में है । मनुष्य को क्रमश: व्रतों को धारण करते हुए ,मुक्तिपथ पर आगे बढ़ना चाहिए । " महाराज की गुरू गंभीर वाणी से उपदेश की सरिता ही प्रवाहित हो रही थी । और श्रोतागण ध्यानस्त होकर उसमें अवगाहन कर रहे थे। सुकुमाल गवाक्ष से उद्यान की भीड़को देख रहा था । और महाराज के स्वर की भनक उसे सुनाई पड़ रही थी । उसे अपने कर्मचारी द्वारा इतना ही पता चला कि उद्यान में कोई जैन साधु पधारे हैं । सुकुमाल ने सोचा कि जब इतने लोग उनके दर्शनों को दौड़ रहे हैं तो निश्चित रूप से वे बड़े धनवान पुरूष होगें । पर उन्हें अपने कर्मचारी द्वारा ज्ञात हुआ कि वे तो परम दिगम्बर हैं । एक पीछी और कमण्डलु के सिवाय उनके पास कुछ भी नहीं है । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने उनसे मिलने का दृढ़ निश्चय किया । प्रातः काल प्रत्यूष बेला में जब ऊषा कुम-कुम के थाल सजाये सूर्यदेव की अगुवानी कर रही थी, पक्षी कल-कल के संगीत से स्वागत के गीत गा रहे थे,पुष्प अपनी सुगन्ध लुटा रहे थे, समस्त वातावरण प्रभात के स्वागत में प्रफुल्लित था तभी सुकुमाल ,माँ की नजरे बचाकर गुप्त रूप से उद्यान में पहुंचा । सुकुमाल ने पहली बार जैन साधु के दर्शन किए । उनके मुख की क्रान्ति ,आँखों के वात्सल्य से वह स्वयं प्रभावित हुआ, नमस्कार करके उनके सामने बैठा । महाराज की आँखों में आँखों मिलाते ही उसे एकाएक जाति स्मरण हो आया । पूर्व भव के समस्त दुःख उसके सामने चलचित्र से दृश्यमान हो उठे । “वस्त ,तुम्हारी आयु अब मात्र तीन दिन शेष रह गई है । वर्तमान सुख और वैभव तुम्हारे पूर्वजन्म के पुण्य का फल है । गत जन्म में अन्तिम समय में मोहमाया को त्याग कर तुमने वैराग्य धारण किया था । जिससे यह सुख सम्पत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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