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________________ 38 :: तत्त्वार्थसार अज्ञानत्रय - मिथ्यात्व के उदय से दूषित मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान 'अज्ञानत्रय' कहलाते हैं। इनके नाम कुमति, कुश्रुत और कुअवधि हैं। दूसरे के उपदेश के बिना विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में जो प्रवृत्ति होती है उसे 'कुमति ज्ञान' या मत्यज्ञान कहते हैं । रागद्वेष - पोषक ग्रन्थों के परमार्थशून्य उपदेश को कुश्रुतज्ञान अथवा श्रुताज्ञान कहते हैं । मिथ्यादृष्टि के अवधिज्ञान को 'कुअवधि' या 'विभंगज्ञान' कहते हैं। इसके भवप्रत्यय विभंग और क्षायोपशमिक विभंग ऐसे दो भेद हैं । भवप्रत्यय विभंगज्ञान देव और नारकियों के होता है तथा क्षयोपशमिक विभंगज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों के होता है। इस विभंगज्ञान के द्वारा दूसरों के अपकार को जानकर नारकी आदि अज्ञानी जीव परस्पर कलह में प्रवृत्त होते हैं । ज्ञानचतुष्क— सम्यग्दृष्टि जीव के मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार ज्ञान, ज्ञानचतुष्क कहलाते हैं। इनके लक्षण पहले कहे जा चुके हैं। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से ये चार ज्ञान प्रकट होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान- ये तीन ज्ञान चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं और मन:पर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है । पंचलब्धियाँ - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य — ये पाँच लब्धियाँ कहलाती हैं । ये लब्धियाँ दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्रकट होती हैं तथा मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के होती हैं । देशसंयम - अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय तथा सदवस्थारूप उपशम होने से और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क तथा संज्वलनचतुष्क का उदय होने पर एवं हास्य आदि नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर जो एकदेश संयम प्रकट होता है उसे 'देशसंयम' अथवा संयमासंयम कहते हैं । इस संयम में स्थावर - हिंसा आदि सूक्ष्म पापों से निवृत्ति न होने के कारण अविरत अवस्था रहती है। यह देशसंयम सिर्फ पाँचवें गुणस्थान में होता है । इसके दर्शनप्रतिमा आदि ग्यारह अवान्तर भेद हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क - इन छह सर्वघाति प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदय आनेवाले निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल में उदय आनेवाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघातिप्रकृति का उदय रहते हुए जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसे 'क्षायोपशमिक सम्यक्त्व' कहते हैं । यह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। इसी का दूसरा नाम वेदक सम्यग्दर्शन है। क्षायोपशमिक चारित्र – अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क सम्बन्धी बारह सर्वघाति प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदय में आनेवाले निषेकों का उदयाभावी क्षय और आगामी काल में उदय आनेवाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम, संज्वलनचतुष्क में से किसी एक देशघातिस्पर्द्धक का उदय एवं हास्यादि नौ नोकषायों का यथासम्भव उदय रहने पर जो निवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे ' क्षायोपशमिक चारित्र' कहते हैं । यह चारित्र छठे गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक होता है । दर्शनत्रय - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन - ये तीन दर्शनत्रय कहलाते हैं। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण तथा अवधिदर्शनावरण- इन तीन कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम से ये क्रमशः प्रकट होते हैं । चक्षु इन्द्रिय से होनेवाले ज्ञान के पहले पदार्थ का जो सामान्य अवलोकन होता है उसे चक्षुदर्शन कहते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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