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________________ द्वितीय अधिकार :: 39 हैं। चक्षु इन्द्रिय के सिवाय शेष इन्द्रियों तथा मन से होनेवाले ज्ञान के पहले जो सामान्य अवलोकन होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं, तथा अवधिज्ञान के पहले होनेवाले सामान्य अवलोकन को अवधिदर्शन कहते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं तथा अवधिदर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षायिक भावों के भेद सम्यक्त्व-ज्ञान- चारित्र - वीर्य - दानानि दर्शनम् । भोगोपभोगौ लाभश्च क्षायिकस्य नवोदिताः ॥ 6 ॥ अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान ( केवलज्ञान), क्षायिकचारित्र, क्षायिक वीर्य, क्षायिक दान, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक लाभ और क्षायिक दर्शन (केवलदर्शन) ये नौ क्षायिक भाव कहे गये हैं। भावार्थ क्षायिक सम्यक्त्व आदि भावों का स्वरूप इस प्रकार है 1. क्षायिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क— इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यग्दर्शन प्रगट होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । यह कर्मभूमि के ही उत्पन्न होता है। चौथे से सातवें गुणस्थान के बीच में कभी भी हो सकता है तथा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। इसका सद्भाव चारों गतियों में पाया जाता है। इस सम्यग्दर्शन का धारक जीव उसी भव में, तीसरे भव में अथवा चौथे भव में नियम से मोक्ष चला जाता है । संसार में रहने की अपेक्षा यह चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक रहता है। उसके बाद सिद्ध अवस्था में भी अनन्तकाल तक रहता है। 2. क्षायिक ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से जो ज्ञान प्रकट होता है वह क्षायिक ज्ञान कहलाता है । इसे ही केवलज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान का धारक लोक- अलोक के समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है | यह तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में तथा सिद्ध अवस्था में भी रहता है । 3. क्षायिक चारित्र समस्त चारित्रमोहनीय का क्षय होने पर जो चारित्र प्रकट होता है उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं । यह बारहवें आदि गुणस्थानों में होता है। इसे क्षायिक यथाख्यातचारित्र भी कहते हैं । 4. क्षायिक वीर्य – वीर्यान्तराय कर्म का क्षय होने पर जो वीर्य प्रकट होता है उसे क्षायिक वीर्य कहते हैं । यही अनन्त बल कहलाता है । दानान्तराय कर्म के क्षय से जो प्रकट होता है उसे क्षायिक दान कहते हैं । यह Jain Educationa International - 5. क्षायिक दान अनन्तप्राणियों के समूह पर अनुग्रह करनेवाले अभयदानरूप होता है। 6. क्षायिक भोग - भोगान्तराय के क्षय से जो प्रकट होता है उसे क्षायिक भोग कहते हैं । इससे पुष्पवृष्टि आदि कार्य होते हैं। 7. क्षायिक उपभोग - उपभोगान्तराय के क्षय से जो प्रकट होता है उसे क्षायिक उपभोग कहते हैं। इससे सिंहासन, चमर तथा छत्रत्रय आदि विभूति प्राप्त होती है । 8. क्षायिक लाभ - लाभान्तराय कर्म के क्षय से जो प्रकट होता है वह क्षायिक लाभ कहलाता है । इससे शरीर में बलाधान करनेवाले अनन्त शुभ - सूक्ष्म - पुद्गल परमाणुओं का सम्बन्ध शरीर के साथ होता रहता है, जिससे आहार के बिना ही देशोनकोटिवर्ष पूर्व तक शरीर स्थिर रहता है । - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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