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________________ द्वितीय अधिकार :: 37 5. पारिणामिक भाव - कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से निरपेक्ष जीव का जो भाव है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । औपशमिक भावों के भेद भेद सम्यक्त्वचारित्रे द्वावौपशमिकस्य हि । अर्थ - औपशमिक भाव दो प्रकार का है - 1. औपशमिक सम्यक्त्व, 2. औपशमिक चारित्र । औपशमिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक मिल सकता है और औपशमिक चारित्र केवल ग्यारहवें गुणस्थान में ही मिलेगा । 1. औपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से, श्रद्धा गुण की जो पर्याय प्रकट होती है उसे 'औपशमिक सम्यग्दर्शन' कहते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं-प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का लक्षण ऊपर कहा जा चुका है । उपशम श्रेणी चढ़ने के सम्मुख क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव जब अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना अप्रत्याख्यानावरणादिरूप परिणति करता है तब उसके द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थ से लेकर सप्तम स्थान तक होता है । और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थ से ग्याहरवें गुणस्थान तक होता है । यद्यपि इसकी उत्पत्ति सप्तम गुणस्थान में होती है तथापि उपशम श्रेणीवाला जीव उपरितन गुणस्थानों से पतन कर जब नीचे आता है तब चतुर्थादि गुणस्थानों में भी इसका सद्भाव रहता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को जब सम्यग्दर्शन होता है तब सर्व प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है । 2. औपशमिक चारित्र - चारित्रमोहनीय की समस्त प्रकृतियों का उपशम होने पर जो चारित्र प्रकट होता है उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं । यह ग्यारहवें गुणस्थान में ही होता है । अन्तर्मुहूर्त के बाद इसका पतन नियम से हो जाता है । क्षायोपशमिक भावों के भेद अज्ञान-त्रितयं ज्ञान-चतुष्कं पञ्च - लब्धयः ॥ 4 ॥ देशसंयम - सम्यक्त्वे चारित्रं दर्शनत्रयम् । क्षायोपशमिकस्यैते भेदा अष्टादशोदिताः ॥ 5 ॥ अर्थ- 1. कुमति, 2. कुश्रुत और 3. कुअवधि—– ये तीन अज्ञान; 4. सम्यक्-मति, 5. श्रुत, 6. अवधि और 7. मन:पर्यय ये चार ज्ञान; 8. दान, 9 लाभ, 10. भोग, 11. उपभोग और 12. वीर्य - ये पाँच लब्धियाँ, 13. देशसंयम 14. सम्यक्त्व, 15. चारित्र तथा 16. चक्षुदर्शन, 17. अचक्षुदर्शन, और 18. अवधिदर्शन - ये तीन दर्शन, इस प्रकार क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं। भावार्थ- क्षयोपशम अवस्था ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - इन चार घातिया कर्मों की होती है। इन्हीं कर्मों के क्षयोपशम से ऊपर कहे हुए अठारह भाव प्रकट होते हैं । इनके लक्षण इस प्रकार हैं -- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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