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________________ मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा द्वितीय अधिकार अनन्तानन्त - जीवानामेकैकस्य प्ररूपकान्। प्रणिपत्य जिनान्मूर्ध्ना, जीवतत्त्वं प्ररूप्यते ॥ 1 ॥ अर्थ - अनन्तानन्त जीवों में से एक-एक को जानने व देखनेवाले जिनेन्द्र भगवान को मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ और फिर जीवतत्त्व का निरूपण करता हूँ । जीव का लक्षण एवं औपशमकादि भावों के भेद अन्यासाधारणा भावाः पञ्चौपशमिकादयः । स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य, जीवः स व्यपदिश्यते ॥ 2 ॥ स्यादौपशमिको भावः क्षायोपशमिकस्तथा । क्षायिकश्चाप्यौदयिकः तथान्यः पारिणामिकः ॥ 3 ॥ अर्थ - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक - ये पाँच भाव जिस तत्त्व के स्वभाव हों वही जीव कहलाता है । जीव के अतिरिक्त ये पाँच भाव किसी भी अन्य पदार्थ में नहीं रहते, इसीलिए ये जीव के असाधारण भाव कहे जाते हैं। इन पाँच प्रकार के सिवाय जीव में छठा प्रकार ऐसा नहीं मिल सकता है जोकि पाँचों में से किसी एक में गर्भित न होता हो । पाँचों भावों के समझते ही जीव की असाधारणता समझ में आ जाती है। 1. औपशमिक भाव - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण अन्तर्मुहूर्त के लिए कर्मों की फल देने की शक्ति का प्रकट नहीं होना उपशम कहलाता है। इस उपशम के समय जो भाव होता है उसे औपशमिक भाव कहते हैं। Jain Educationa International 2. क्षायोपशमिक भाव - वर्तमान काल में उदय आनेवाले सर्वघातिस्पर्द्धकों के निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल में आनेवाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और देशघाति के उदय रहने पर जो भाव होता है उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । इसी का दूसरा नाम मिश्र भाव 1 3. क्षायिक भाव-आत्मा से कर्मों का सर्वथा दूर होना क्षय कहलाता है । क्षय के समय जो भाव होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । 4. औदयिक भाव - द्रव्यादि निमित्त के वश से कर्मों का फल प्राप्त होना उदय कहलाता है । उदय के समय जो भाव होता है उसे औदयिक भाव कहते हैं । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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