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________________ प्रथम अधिकार :: 35 गये हैं। जैसे कि सम्यग्दर्शन का विचार करना हो तो, प्रथम उसका अस्तित्व कहना - (1) यह सत्वर्णनरूप पहला उपाय हुआ । किसी की सत्ता स्थापित होने से पहले उसका अधिक विचार हो ही नहीं सकता है।' (2) फिर सम्यग्दर्शन के भेदों की गिनती करना चाहिए। जैसे कि सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं। (3) सम्यग्दर्शन का निवासस्थान त्रसनाली आदि कहने का नाम क्षेत्र है । (4) एक कोई भी अवस्था जब तक जहाँ रहती हो उस अवस्था के उस स्थान का स्पर्शन' कहते हैं । (5) ठहरने की मर्यादा को काल कहते हैं। (6) किसी का मध्यवर्ती स्वरूप कहना तथा विरहावस्था दिखाना - यह अन्तर है । जैसे कि क्षायिक सम्यग्दर्शन में अन्तर नहीं पड़ता है, अर्थात् वह एक बार उत्पन्न हो गया तो सदा ही रहता है। (7) जीवपरिणामों के औपशमिकादि पाँच भेद आगे कहेंगे, उनमें से किस प्रकार में उसे गर्भित करना—यह — भाव' नामक उपाय है। (8) साथ में कोई दूसरा एक तत्त्व रखकर, उसके साथ हीनाधिकता की तुलना करना - यह अल्पबहुत्व का अर्थ है । T दूसरे प्रकार में बहुत से भेद ऐसे हैं कि पहले प्रकार में भी वे आ जाते हैं, तो भी अधिक स्पष्ट करने के लिए एक-एक बात को दो-दो तरह से कहना भी अनुचित नहीं है। सात तत्त्वों को जानने की प्रेरणा (शालिनी छन्दः ) सम्यग्योगो मोक्षमार्गं प्रपित्सुर्न्यस्तां नाम - स्थापना - द्रव्य - भावैः । स्याद्वादस्थां प्राप्य तैस्तैरुपायैः प्राग् जानीयात् सप्ततत्त्वान् क्रमेण ॥ 54 ॥ अर्थ - मोक्षमार्ग में प्राप्त होने की इच्छा रखनेवाला मनुष्य प्रथम तो ज्ञानादि गुणों को सम्यक् बना ले। बाद में नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव - इन निक्षेपों के चारों प्रकार से वस्तुस्वरूप जान ले। फिर प्रमाण व नयरूप सप्तभंगी स्याद्वाद तथा नैगमादि के द्वारा सातों तत्त्वों को समझकर निर्देश आदि छह तथा सत् आदि आठ उपायों द्वारा भी सात तत्त्वों को समझे। यही इस अध्याय' में वर्णन किया है । इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित 'तत्त्वार्थसार' में, धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका में सात तत्त्वों का कथन करनेवाला प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ । 1. 'सर्वेषां च विचारार्हाणमस्तित्वं मूलं ' । - रा.वा. 1/8, वा. 2 2. अवस्थाविशेषस्य वैचित्र्यात् त्रिकालविषयोपश्लेषनिश्चयार्थे स्पर्शनम्। कस्यचित्तत्क्षेत्रमेव स्पर्शनं, कस्यचिद् द्रव्यमेव, कस्यचिद्रज्जवः षडष्टौ वेति । - रा. वा. 1/8, वा. 5 3. विनेयाशयवशो वा तत्त्वाधिगमहेतुविकल्पः । केचित्संक्षेपेण प्रतिपाद्याः केचिद्विस्तेरण । इति सर्वेषामेव (पुनरुक्तानां विषये ) परिहार : (शंकायाः) । -- रा. वा. 1/33, वा. 23 4. 'ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैव लक्षणम् । ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेस्मिन्निरूपितम् ।' ऐसा भी इस अध्याय के सारांश का सूचक श्लोक दूसरे ग्रन्थों में कहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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