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________________ 34 :: तत्त्वार्थसार अथ सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तराणि भावश्च। अल्पबहुत्वं चाष्टावित्यपरेऽप्यधिगमोपायाः॥ 53॥ अर्थ-प्रमाण व नय तो तत्त्वार्थ समझने के लिए मुख्य उपाय हैं ही, परन्तु उन प्रमाणनयों की योजना किसी भी विषय में किस प्रकार से हो सकती है-यह समझने के लिए ग्रन्थकार दो प्रकार बताते हैं। इन प्रकारों के जान लेने से विषय विवेचन करने की पद्धति समझ में आ सकती है। ये दो प्रकार या दो भेद देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि इन्हीं दो प्रकारों से वस्तु-विवेचन करना ठीक है और यह कि और प्रकार हो ही नहीं सकते हैं, अथवा दूसरे प्रकार करना ठीक नहीं है, क्योंकि समझने-समझाने के लिए ये दोनों उदाहरणमात्र हैं। अर्थात् आचार्य इन दो प्रकारों को दिखाकर यह कहते हैं कि जैसे हमने इन दो प्रकारों से वर्णनीय या जानने-योग्य किसी वस्तु के वर्णन योग्य विभाग करके दिखा दिये हैं, उसी प्रकार तुम अपनी इच्छा व आवश्यकता के अनुसार ये अथवा दूसरे भी हीनाधिक विभाग करके समझ सकते हो और कह सकते हो। पहला प्रकार : तत्त्वों को जानने के लिए निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति व विधान ये छह उपाय हैं। जिस विषय को समझना-समझाना हो उसका स्वरूप कहना निर्देश है। उस विषय का किसी की तरफ अधिकार दिख पड़ता हो तो वह कहना स्वामित्व है। उसकी उत्पत्ति के कारणों को साधन कहते हैं । वर्णनीय वस्तु के निवासस्थान को अधिकरण समझना चाहिए। उस वस्तु के ठहरने का परिमाण स्थिति है। उसके भेदों को विधान कहते हैं। उदाहरणार्थ सम्यग्दर्शन में ये छहों प्रकार देखिए (1) तत्त्वार्थ का श्रद्धान—यह सम्यग्दर्शन का निर्देश हुआ। (2) चारों गतियों के समनस्क भव्य जीव इसके स्वामी हो सकते हैं। (3) जिनप्रतिमादर्शन, केवली का उपदेश—इत्यादि इसके कारण या साधन हैं। (4) बाह्य दृष्टि से अधिकरण त्रसनाली है और अन्तरंग अधिकरण आत्मा ही हो सकता है। (5) जघन्य स्थिति इसकी अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट छ्यासठ सागरपर्यंत होती है। (6) निसर्गज व अधिगमजये दो भेद हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक ये तीन भेद भी हैं। आज्ञा, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ, परमावगाढ—ये दश भेद भी होते हैं। इसी प्रकार अन्य विषयों में भी इन भेदों के अनुसार विषयविवेचन किया जा सकता है। दूसरा प्रकार विस्ताररुचि की अपेक्षा : दूसरे प्रकार से सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व-ये आठ उपाय बताये 1. निर्देशोऽर्थात्मावधारणं। स्वामित्वमाधिपत्यं। साधनं कारणं-रा.वा., 1/7 2. आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्। विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च॥11॥ आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव, त्यक्तग्रन्थप्रपंचं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः। मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता, या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ।।12।। आकर्ष्याचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टि१रधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः। कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद्वीजदृष्टिः पदार्थान्, संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान्साधु संक्षेपदृष्टिः 13 ॥ यः श्रुत्वा द्वादशांगी कृतरुचिरथ तं विद्धिविस्तारदृष्टि, संजातार्थात्कुतश्चित् प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः। दृष्टिः सांगांगबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढः, कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा 14 ॥ इन श्लोकों का अर्थ 'आ.नु.' की हिन्दी टीका में देखो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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