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________________ प्रथम अधिकार :: 33 भूत-भविष्यत् सर्व पर्याय छूटकर एक वर्तमान अवस्था का संग्रह रह जाता है। चौथे में यद्यपि केवल वर्तमानवी अवस्था ज्ञान में रह जाती है तो भी उसके पिंड में अनेकों गुण या स्वभाव भरे रहते हैं, जोकि चौथे नय तक अभेदभाव से ही जानने में आते हैं। पाँचवें में वे बहुत से स्वभाव छूट जाते हैं। वहाँ केवल उतने ही स्वभावों की जानकारी होती है, जितने कि उस शब्द के विशेषण कहे जा सकते हैं। छठे नय में वे भी कम हो जाते हैं. जो अनेक रूढ अर्थों का पाँचवें में संग्रह था, उनमें से यहाँ एक रह जाता है, शेष छूट जाते हैं। इसमें यौगिक अर्थ की मुख्यता का विचार न रहने से यौगिकार्थविशिष्ट रूढार्थ भी ग्रहण करने में आता है और योगिकार्थरहित केवल रूढार्थ ग्रहण किया में यह बात नहीं है यहाँ केवल उसी रूढार्थ का ग्रहण होता है जो यौगिक अर्थ से युक्त हो। इसलिए छठे में जानने योग्य केवल रूढार्थ इस सातवें नय में कम हो जाता है। (1) नैगम नय-प्रस्थ लेने जा रहा हूँ। इस कथन में प्रस्थ योग्य लकड़ी का लक्ष्य जिसमें लकड़ी के अलावा टहनियाँ एवं पत्ते आदि भी हैं अर्थात् इसमें प्रस्थ योग्य लकड़ी सत् है एवं टहनियाँ एवं पत्ते असत् हैं। यह नैगम नय का कथन है। (2) संग्रह नय-प्रस्थ योग्य लकड़ी को चुनना, इसमें टहनियाँ एवं पत्ते कम कर दिये अर्थात् असत् को कम कर दिया। यह संग्रह नय है। (3) व्यवहार नय-प्रस्थ योग्य लकड़ी को भी काटना-छाँटना आदि व्यवहार नय है। (4) ऋजुसूत्र नय-प्रस्थ योग्य लकड़ी में सूत्र आदि डालकर प्रस्थ का आकार देना, ऋजुसूत्र नय है। __ (5) शब्द नय-प्रस्थ के आकार का नामकरण करना, क्योंकि भिन्न-भिन्न देशों में उस प्रस्थ को कई शब्दों में कहा जाता है यह शब्द नय है। __(6) समभिरूढ़ नय-प्रस्थ के पात्र को प्रयोजनवशात् अनेक कार्यों में लेना समभिरूढ़ नय है। (7) एवंभूत नय-उस प्रस्थ को धान्य मापने के ही काम में लेना, अन्य कार्यों में नहीं लेना एवं भूतनय है। इन सात नयों को ऊपर के क्रम से बताने में हेतु, विषयों का स्थूल-सूक्ष्मपना ही है। विषयों के विभाग या अंश कम से कम द्रव्य व पर्याय-ऐसे दो होंगे और अधिक से अधिक दोनों के उत्तर भेद सात होंगे, इसलिए इनके ग्राहक नय भी सात तक विभक्त किये जा सकते हैं। जो ऐसे विभाग को या अंशकल्पना को न कराकर समुदित वस्तु का ग्रहण करता है उसे प्रमाण कहते हैं। वास्तविक प्रमाण ज्ञान ही होता है और एकदेशग्राही होने पर वे ही नय कहलाते हैं; इसलिए नय भी ज्ञान के ही नाम हैं, परन्तु ज्ञान के द्वारा जाने हुए विषयों का प्रतिपादन शब्द ही कर सकता है, इसलिए शब्दों को भी नय कहा जाता है। विषयविषयी-सम्बन्ध के वश यदि विषयी ज्ञान के नाम विषयों में लगा दें तो प्रतिपादित होनेवाले पदार्थों को भी नय कहना उचित ही है। इसलिए नयों के ज्ञाननय, शब्दनय, अर्थनय-ये तीन प्रकार हैं। पदार्थों को मध्यम एवं विस्तार विधि से जानने के उपाय (आर्याछन्द) निर्देश: स्वामित्वं, साधनमधिकरणमपि च परिचिन्त्यम्। स्थितिरथ विधानमिति षड् तत्त्वानामधिगमोपायाः॥ 52॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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