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________________ प्रथम अधिकार :: 25 होनेवाला रूपी द्रव्य अनन्तवें भाग सूक्ष्म हो जाने तक मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है। समस्त पर्याय व द्रव्यों का ज्ञान केवलज्ञान द्वारा होता है । एक जीव में एक साथ कितने ज्ञान ? जीवे युगपदेकस्मिन्नेकादीनि विभावयेत् । ज्ञानानि चतुरन्तानि न तु पञ्च कदाचन ॥34॥ अर्थ - किसी भी जीव में कभी भी पाँचों ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते हैं। हाँ, एक जीव में एक साथ चार तक रह सकते हैं । केवलज्ञान हो तो वही एक होगा। उसके साथ दूसरा कोई भी ज्ञान नहीं रह सकता है। जैसे सूर्य के ऊपर मेघपटल रहते हैं तब अनेक प्रकार से अनेक क्षेत्रों में खंडशः प्रकाश पड़ता है, परन्तु मेघपटल सर्वथा हट जाने पर उसका प्रकाश अखंडरूप से सर्वत्र पड़ने लगता है । उसी प्रकार ज्ञानावरण के रहते हुए जीव का ज्ञानगुण कभी दो प्रकार से और कभी तीन अथवा चार प्रकार से अलग-अलग विषयों में अपना प्रकाश करता है, परन्तु जब आवरण का सर्वथा नाश हो जाता है उस समय पूर्णरूप से वह प्रकाशित होने लगता है । उस समय ज्ञान में खंड अथवा प्रकार रहने का कोई कारण नहीं है। जब तक आवरण निःशेष नष्ट नहीं हुए तब तक अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान के दो आवरणों का यदि पूरा उदय रहे तो भी मति - श्रुतसम्बन्धी दो आवरणों के क्षयोपशम द्वारा दो ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान विद्यमान रह सकते हैं। यदि 'अवधि' के आवरण का भी क्षयोपशम होने लगे तो अवधिज्ञान भी होने लगता है। उस समय तीन ज्ञान युगपत् कहे जाते हैं । मन:पर्ययज्ञान का आवरण भी जब क्षयोपशम को प्राप्त होता है, तब मन:पर्ययज्ञान भी हो सकता है । उस समय चार ज्ञान तक एक साथ रहने लगते । इस प्रकार जीवों में प्रथम चार ज्ञान तक युगपत् हो जाना सम्भव प्रश्न – जबकि मतिज्ञानादि एक-एक ज्ञान के भी अनेक विषय एक साथ जानने में आना कठिन है तो अनेक ज्ञान युगपत् किस प्रकार रह सकते हैं ? उत्तर—आवरणों का क्षयोपशम एक साथ जितने ज्ञान के सम्बन्ध का हो जाता है उतनी ज्ञानशक्ति इस लायक हो जाती है कि जीव चाहे जब उसका उपयोग कर ले, इसलिए यद्यपि उपयोग एक समय में एक के सिवाय अधिक नहीं हो सकता है तो भी लाभ की योग्यता मात्र रहने से चार ज्ञान तक एक साथ कहने में आते हैं। जिन ज्ञानों में हम एक से अधिक विभाग कर सकते हैं वे अनेक ज्ञान एक साथ कभी काम में नहीं आते हैं - यह नियम है । केवलज्ञान यद्यपि तीन लोक और त्रिकाल के विषयों को जानता है और अलोक तक के विषयों को जान सकता है तो भी वह अखंड कहलाता है । नाना विषयों के सम्बन्ध से उसमें अनेकपन नहीं आता, इसीलिए वह सर्व विषयों को जानते हुए भी क्रमवर्ती नहीं हो पाता है। दूसरे ज्ञानों में अखंडता से जानने की योग्यता नहीं है, इसलिए वे क्रमवर्ती कहे जाते हैं । ज्ञान मिथ्या होने का कारण Jain Educationa International मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्व - समवायिनः । मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥ 35 ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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