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________________ 24 :: तत्त्वार्थसार का पूर्ण क्षय भी नहीं होता एवं जितनी योग्यता प्राप्त होती है उतना भी उपयोग नहीं हो पाता है, यह मोह की महिमा है। दशवें गुणस्थान तक मोह रहता है, इसलिए तभी तक ज्ञान भी क्षायोपशमिक रहते हैं और जितना क्षयोपशम होता है उतना भी एकदम तब तक प्रकट नहीं हो सकता है। मोह नष्ट होते ही ज्यों ही वीतरागता पूरी प्रकट हुई कि बाधक कारण का नाश होने से साक्षात् बाधकरूप ज्ञानावरण का भी पूरा नाश अनायास हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि क्षायोपशमिकपना और क्रमवर्तीपना ये दो उपाधि ज्ञान में से तब तक हट नहीं सकतीं जब तक कि मोहनीय का निर्मूल नाश न हो जाए और मोहनीय का नाश हो जाने पर ये दोनों उपाधि रह नहीं सकती हैं, इसलिए मोह का नाश और सर्वज्ञता की प्राप्ति होने रया कारण-कार्य सम्बन्ध बताया है और मोहक्षय को प्रथम बताकर ज्ञानावरण आदि घातिकर्मों का नाश, जिससे कि केवलज्ञान प्रकट हो सके, बाद में बताया है। मोह का नाश होने पर ज्ञानावरणादि का नाश ठीक उत्तर क्षण में नहीं होता तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञानावरण फिर टिक सकेगा। थोड़ा-सा समय फिर भी लग जाता है। इसका कारण यह है कि मोह का नाश केवल ज्ञानोत्पत्ति का साक्षात्कारण नहीं है। उपयोग की स्थिरता होने में वह बाधक होता था और आसक्ति के होने से आवरण का निश्शेष क्षय नहीं हो पाता था सो वह बाधक हट जाने पर आवरण के नाश की तरफ जीव की प्रवत्ति होने लग जाती है अर्थात् आवरण का नाश करने के लिए ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्न उत्पन्न होते हैं। इस प्रयत्न के पूर्ण होने में जो कुछ समय लग जाता है उतना ही आवरण के नाश होने में विलम्ब हो जाता है, तो भी वह थोड़ा-सा विलम्ब यह प्रमाणित नहीं कर सकता है कि मोहनाश का और आवरणनाश का कारणकार्य सम्बन्ध नहीं है। मोहनाश होने पर भी आवरण नाश करने के लिए प्रयत्न करने में विलम्ब लग जाने का एक हेतु यह भी है कि मोह और आवरण परस्पर में विजातीय हैं और दोनों के नाश के असली फल भी जुदे-जुदे हैं। ऐसी हालत में यह मोहनाश अपना साक्षात्कार्य करता हुआ विजातीय के ऊपर अपना असर क्रम से तथा मन्द वेग द्वारा ही डाल सकेगा, परन्तु इतना निश्चय है कि मोह की शक्ति के बिना निर्वीर्य हो जानेवाले शेष घातिकर्म फिर टिक नहीं सकते हैं, इसीलिए उसके बाद सचराचर, त्रिकालवर्ती विषयों को जानने की शक्तिवाला असहाय, अक्रमवर्ती केवलज्ञान प्रकट होता है। पाँचों ज्ञानों का विषयविभाग मतेविषयसम्बन्धः श्रुतस्य च विबुध्यताम्॥31॥ असर्वपर्ययेष्वत्र सर्वद्रव्येषु धीधनैः। असर्वपर्ययेष्विष्टो रूपिद्रव्येषु सोऽवधेः ।। 32॥ स मनःपर्ययस्येष्टोऽनन्तांशेऽवधिगोचरात्। केवलस्याखिलद्रव्य-पर्यायेषु स सूचितः ॥33॥ अर्थ-बुद्धिमान मनुष्य थोड़े-थोड़े पर्यायों के साथ सभी द्रव्यों को मतिज्ञान व श्रुतज्ञान द्वारा जान सकते हैं। रूपी द्रव्य कुछ पर्यायों के साथ अवधिज्ञान द्वारा जाने जा सकते हैं। अवधिज्ञान के गोचर 1. 'निबुध्यताम्' पाठान्तरम्। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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