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26 :: तत्त्वार्थसार
अर्थ–मति, श्रुत व अवधि-ये तीन ज्ञान मिथ्यादर्शनरूप परिणाम के होने से मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं और तब प्रमाण भी नहीं माने जाते हैं। मोह का परिणाम इतना प्रबल है कि उसके रहते हुए ज्ञान अपना असर नहीं करते हैं। मोह के दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे दो प्रकार हैं। सबसे प्रबल दर्शनमोह होता है। चारित्रमोह के रहने पर भी ज्ञान की वृद्धि नहीं होती, परन्तु जो हो सकता है वह ज्ञान का विपर्यास नहीं है। किन्तु दर्शनमोह ज्ञान में विपर्यास उत्पन्न कर देता है। दर्शनमोह का नाम मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व के उदय से पराभूत हुए जीव का ज्ञान अन्तरंग से विपर्यासित हो जाता है, इसीलिए विषयों को बाहर से यथावत् जानते हुए भी वह ज्ञान अप्रमाण माना गया है। मिथ्यात्व का असर पहले के तीन ज्ञानों पर ही होता है, इसलिए वे ही तीन अप्रमाण कहे गये हैं।
मिथ्याज्ञानी का दृष्टान्त
अविशेषात् सदसतोरुपलब्धे-र्यदृच्छया।
यत उन्मत्तवज्ज्ञानं न हि मिथ्यादृशोऽञ्जसा ॥ 36॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव वास्तविक सत् और असत् वस्तुस्वरूप की विशेष पहचान न होने से केवल अपनी रुचि से ही सत्-असत् आदि का निश्चय ठहराते हैं, इसलिए उनका वह ज्ञान निर्दोष कभी नहीं माना जा सकता। जैसे एक उन्मत्त पुरुष को माता व स्त्रीपने का भान नहीं है। वह स्त्री को माता और माता को स्त्री कह देता है। उसका वह ज्ञान कभी सत्य नहीं कहा जा सकता। जब तक वह इसी प्रकार बेसुध रहेगा तब तक यदि माता को माता भी कहे तो भी उसका ज्ञान सत्य नहीं माना जाता, क्योंकि अभी तक उसे सत्-असत् का सही ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ।
नय का लक्षण तथा भेद
वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाण-व्यञ्जितात्मनः।
एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा मतः॥ 37॥ अर्थ-अनन्त धर्म या गुणों के समुदायरूप वस्तु का स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है और जो उस अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंगों का ज्ञान करा दे उसे नय समझना चाहिए।' वस्तुओं के धर्म अनन्त होने से अवयव भेद भी अनन्त हो सकते हैं, इसीलिए अवयवों के ज्ञानरूप नय भी अनन्त हो सकते हैं।
नयों के भेदों के नाम
द्रव्य-पर्यायरूपस्य सकलस्यापि वस्तुनः। नयावंशेन नेतारौ द्वौ द्रव्य-पर्यायार्थिको॥38॥
1. प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः।-रा.वा. 1/33, वा.1
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