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प्रथम अधिकार :: 21
ज्ञान मनोगत विचारों की जितनी सूक्ष्म अवस्था को समझ सकता है, उससे भी अति सूक्ष्म को विपुलमति ज्ञान समझ सकता है। परमाणु से अधिक सूक्ष्म मूर्तिक पदार्थ नहीं हो सकता है और परमाणु तक अवधिज्ञान ही जान लेता है। इसलिए मनःपर्यय का विषय अतिसूक्ष्म बताने का यह मतलब मानना चाहिए कि बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा मनोगत भाव एक अतिसूक्ष्म और विजातीय चीज है, इसीलिए अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान को एक जुदा ज्ञान माना है। यदि बाह्य विषय में ही जानने की शक्ति अतिसूक्ष्म तक त्तरोत्तर बढ़ने मात्र से मनःपर्यय की कल्पना होती तो जदा मानने की आवश्यकता न थी और न नाम ही 'मनःपर्यय' ऐसा जुदा रखा जाता। विषय के प्रकार जब तक जुदे न हों तब तक ज्ञान की जाति में भेद मानना निराधार है, इसीलिए मानना चाहिए कि जो अवधिज्ञान का विषय है वह मनःपर्यय का नहीं है और जो मन:पर्यय का है वह अवधिज्ञान का नहीं है। पाँचों ही ज्ञानों के विषयाकार का विवेचन जुदाजुदा है। विषयाकार जुदा होने से उसको जाननेवाला ज्ञान भी जुदा मानना पड़ता है। विषय का अर्थ केवल वस्तुमात्र ही नहीं होता, किन्तु ज्ञेयत्वधर्म की मुख्यता से विषय का आकार ठहराया जाता है। जबकि ज्ञान के बिना ज्ञेयत्वधर्म का निश्चय होना कठिन है तो ज्ञान के भेद से विषयों में भेद मानना भी आवश्यक है। जानों में भेद उत्पत्ति-कारण-आदि प्रकारों के भिन्न होने से जरूर ही मानना पडता है। इस प्रकार मनःपर्यय का विषय अवधिज्ञान के विषय से अतिसक्ष्म है। सक्ष्म विषयों को जाननेवाला मन:पर्यय हो जाने पर भी किसी-किसी को अवधिज्ञान नहीं होता है। यदि सूक्ष्मता मात्र ही विषय का भेद होता तो मन:पर्ययवाले को अवधिज्ञान अवश्य होता, इसलिए भी विषय की जाति जुदी-जुदी माननी पड़ती है।
वर्तमान में जो विचार जारी हो 'ऋजुमति' उसी को जान सकता है और सरल से सरल विचारों को जान सकता है, परन्तु 'विपुलमति' उन विचारों को भी जान सकता है जो आगे होनेवाले हों अथवा बीत गये हों एवं जो कुटिल से कुटिल और जटिल से जटिल हों उन विचारों को भी वह जान लेता है, इसीलिए पहले का अन्वर्थ नाम ऋजुमति और दूसरे का विपुलमति है।
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां विशेषश्चिन्त्यतां तयोः। अर्थ-ऋजुमति और विपुलमति में दो बातों का अन्तर है। एक तो यह कि ऋजुमति से विपुलमति की निर्मलता अधिक होती है और दूसरा यह कि ऋजुमति होकर छूट भी जाता है परन्तु विपुलमति केवलज्ञान तक रहता है। पहले से दूसरे की निर्मलता अधिक है, इसीलिए सिद्ध हो जाता है कि दूसरा अधिक सूक्ष्म को समझ लेता है। अप्रतिपात का कारण यह है कि दूसरे ज्ञान के होते ही चारित्र की इतनी तीव्र विशुद्धि बढ़ती है कि वह निश्चय से क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करा दे एवं उस ज्ञान के आवरण का अन्तिम क्षय इतना टिकाऊ होता है कि वह फिर बन्द नहीं हो सकता। परिणामों की विचित्रता अचिन्तनीय है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि उत्कृष्ट चारित्र के होने से दूसरे मन:पर्यय का आवरण व चारित्रघाती कर्म एक साथ क्षयोपशम को प्राप्त होते हैं और चारित्र वर्धमान होने से उस ज्ञानावरण को फिर उदय में आने का कभी अवकाश ही नहीं मिलता, क्योंकि जितने चारित्ररूप परिणाम से उस आवरण का क्षयोपशम हुआ था, उससे चारित्र प्रति समय बढ़ता ही चला जाता है, इसलिए जब
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