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________________ 22:: तत्त्वार्थसार चारित्र घटता नहीं तो उस आवरण का उदय फिर किस प्रकार हो सकता है ? उस चारित्र से उस आवरण का क्षयोपशम होकर दूसरा मनःपर्ययज्ञान होता है और उसके होने से वह चारित्र वर्धमान होने लगता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर ज्ञान व चारित्र परस्पर की वृद्धि करते हुए यथाख्यात चारित्र व केवलज्ञान की दशा तक पहुँच जाते हैं। इस ज्ञान के लिए चारित्र प्रथम कारण हुआ था, इसलिए परस्पर वृद्धि होते हुए भी प्रथम चारित्र ही पूर्ण होता है। अवधि और मनःपर्यय ज्ञान की पारस्परिक विशेषता स्वामि-क्षेत्र-विशुद्धिभ्यो विषयाच्च सुनिश्चितः॥29॥ स्याद्विशेषोऽवधिज्ञान-मनःपर्ययबोधयोः । अर्थ-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में परस्पर चार बातों का अन्तर है—स्वामी, क्षेत्र, विशुद्धि और विषय; अर्थात् ये चारों बातें अवधि और मन:पर्यय की जुदी-जुदी भी हैं और हीनाधिक भी हैं। अवधिज्ञान चारों गतियों में चाहे जिस सैनी जीव को हो सकता है, परन्तु मनःपर्यय ज्ञान छठे गुणस्थानवर्ती वर्धमान चारित्रवाले मुनिराज को ही होता है। यह स्वामियों की विशेषता हुई। उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात द्वीपसमुद्र पर्यन्त है और मनःपर्यय ज्ञान का अढाई द्वीप मनुष्यक्षेत्र मात्र ही है। विषय के भेद से विशुद्धि से परस्पर अन्तर सहज ही ज्ञात हो सकता है। जब तक अवधिज्ञान की विशुद्धि अधिक न हो तब तक अतिसूक्ष्म विषय की जानकारी कैसे सम्भव हो सकती है? विषय का भेद बता चुके हैं कि परमाणु पर्यन्त का रूपी द्रव्य अवधि का विषय है और मनःपर्ययज्ञान का मनोगत विकल्प ही विषय है। केवलज्ञान का लक्षण असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणमक्रमम् ॥30॥ घातिकर्मक्षयोत्पन्नं केवलं सर्वभावगम्। अर्थ-घातिकर्म का पूर्ण क्षय हो जाने पर सर्व विषयों को जाननेवाला जो ज्ञान प्रकट होता है उसके साथ अल्पज्ञान कोई भी नहीं रह सकते, इसलिए उसे 'केवलज्ञान' कहा है। वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप से उत्पन्न होता है और उसे किसी भी सहारे की जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए वह असहाय कहलाता है। यों तो अवधि ज्ञान व मनःपर्यय ज्ञान भी असहाय हैं उन्हें भी दूसरे की सहायता लेनी नहीं पड़ती, परन्तु उन पर फिर भी ज्ञानावरण का जोर रहता है। उनका आवरण कभी भी पूरा नष्ट नहीं होता, इसलिए वे क्षायोपशमिक कहलाते हैं। केवलज्ञान क्षायिक है, इसलिए इसमें आवरण का थोड़ा-सा भी लेश नहीं रहता। यही कारण है कि इसी को असली असहाय माना है। . यहाँ पर शंका हो सकती है कि अवधि ज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान असहाय न होने से पराधीन हुए। जो पराधीन होता है वह प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता? इसका उत्तर ___ अवधि ज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान की लब्धि प्राप्त होने के लिए आवरण के क्षयोपशम की आवश्यकता होते हुए भी उपयोगात्मक ज्ञान होने में किसी का भी सहारा नहीं लेना पड़ता, इसलिए इनकी प्रत्यक्षता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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