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________________ 20 :: तत्त्वार्थसार देवानां नारकाणां च स भवप्रत्ययो भवेत्। मानुषाणां तिरश्चां च क्षयोपशमहेतुकः॥27॥ अर्थ-वह अवधिज्ञान देव और नरकगति के तो सभी जीवों को होता है, परन्तु मनुष्य और तिर्यंच गति में उसी को हो सकता है जिसने कि उस ज्ञान के घातक कर्म का क्षयोपशम कर लिया हो। मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक ये चार गतियाँ हैं। इन्हीं गतियों में जो जीवों के जन्म होते हैं उन्हें भव कहते हैं। भवों के भी ये ही चार नाम हैं। भवमात्र के निमित्त से देव-नारकों को अवधिज्ञान होता है, इसलिए उनके ज्ञान को भवप्रत्यय अथवा भवनिमित्तक कहा है। जो मनुष्य-तिर्यंचों को होता है, वह सभी को नहीं होता, किन्तु विरलों को होता है, इसलिए उसे भवनिमित्तक नहीं कहते, किन्तु क्षयोपशमनिमित्तक कहते हैं। क्षयोपशम देव-नारकों के अवधिज्ञान होने में भी लगता है; नहीं तो वहाँ आपस के अवधिज्ञान जो हीनाधिक रहते हैं तो वे कैसे हों? तो भी उन्हें देव-नारक भव मिलते ही क्षयोपशम भी मिलता ही है, इसलिए वहाँ थोड़ा-बहुत अवधि सभी को होता है। मनुष्यों में तीर्थंकरों को भी जन्मते ही अवधिज्ञान रहता है, इसलिए उनके अवधिज्ञान को भी भवनिमित्तक ही माना जाता है, परन्तु मनुष्यों में तीर्थंकर समान भवनिमित्तक अवधिज्ञानवाले जीव बहुत ही थोड़े होते हैं, इसलिए यहाँ ऐसे जीवों को गौण मानकर मनुष्यों के अवधि को क्षयोपशमनिमित्तक कहा है। अवधिज्ञान के तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। देव व नारकों में देशावधि को छोड़ दूसरा-तीसरा भेद प्राप्त नहीं हो सकता है। वे मनुष्यों के भेद हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि उग्रतप के माहात्म्य से किसी-किसी को ही इसके आवरण का अभाव हो सकता है। मनःपर्यय ज्ञान का लक्षण और भेद-- परकीय-मनःस्थार्थज्ञानमन्यानपेक्षया। स्यान्मनःपर्ययो भेदौ तस्यर्जु-विपुले मती॥28॥ अर्थ-दूसरों के मन की बात जानना सो मनःपर्यय है। यहाँ इन्द्रिय व मन के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती, इसलिए यह भी अतीन्द्रिय और अतिस्पष्ट होता है। इसके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं। अवधिज्ञान अतिसूक्ष्म पदार्थ को भी जान सकता है। उसकी उत्कृष्ट अवस्था प्रकट होने पर संसारी जीवों का भी स्वरूप कुछ जानने में आता है। जो अवधिज्ञान का विषय है, वह मनःपर्यय का भी विषय होता है। अन्तर इतना ही है कि अवधिज्ञान उपयोग लगाने पर सीधा ही विषयों को जानता है और मन:पर्यय का उपयोग किसी के मन के साथ ही लग सकता है, इसीलिए इसका विषय मनोगत भावमात्र ही माना गया है। उपस्थित विषयों की अपेक्षा मनोगत भाव अति सूक्ष्म समझा जाता है, इसीलिए अवधिज्ञान, जो कि परमाणुपर्यन्त सूक्ष्म वस्तुओं को जान लेता है, उससे भी अधिक सूक्ष्म को जान लेने में मनःपर्यय का सामर्थ्य माना गया है। फिर उस मनःपर्यय में भी जो दो भेद हैं। उनमें से प्रथम भेद का ऋजुमति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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