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________________ प्रथम अधिकार :: 19 हैं, परन्तु छह भेदों के भीतर ये दो भेद गर्भित हो सकते हैं। जैसे, अनुगामी होने से अप्रतिपाती भी हो सकता है। प्रतिपाती को अननुगामी कह सकते हैं, इसलिए सूत्रकार ने तथा ग्रन्थकर्ता ने मुख्य भेद छह ही रखे हैं। छह भेदों में भी तीन भेदों के तीन प्रतिपाती भेद हैं। जैसे, अनुगामी का उलटा अननुगामी, वर्धमान का उलटा हीयमान, अवस्थित का उलटा अनवस्थित। जो जिसका प्रतिपाती है वह उसके साथ नहीं रह सकता है। जैसे अनुगामी अवधि में अननुगामीपना नहीं रह सकता है, परन्तु अनुगामी का विरोध अवस्थित आदि चार भेदों के साथ नहीं है, इसलिए कोई अनुगामी अवधि अवस्थित भी हो सकता है और कोई अनवस्थित भी हो सकता है। इसी प्रकार हीयमान व वर्धमान-ये भेद भी अनुगामी हो सकते हैं। इस प्रकार अवधियों के अनेकों भेद हो जाते हैं, परन्तु इन सभी भेदों का एक लक्षण ऐसा होना चाहिए कि जो इन सभी भेदों का अन्तर्भाव करने और शेष चार प्रकार के ज्ञानों से अवधि को जुदा भी दिखा सके। वह लक्षण यह है - किसी सहारे के बिना जो रूपी पदार्थों का साक्षात् ज्ञान हो वह 'अवधिज्ञान' है। मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में इन्द्रियों की तथा मन की अपेक्षा रहती है, परन्तु अवधि में किसी भी इन्द्रिय या मन का सहारा नहीं लेना पड़ता है, इसीलिए मतिज्ञान को व श्रुतज्ञान को परोक्ष कहते हैं; क्योंकि वे इन्द्रिय और मन के अधीन हैं। जिस प्रकार अन्धा आदमी देख नहीं सकता, इसलिए टटोलने पर कुछ मलिन-सा ज्ञान हुआ मानता है। इसी प्रकार संसारी जीव सीधा समझ नहीं सकते, इसलिए इन्द्रियमन के सहारे विषयों को टटोलते हैं, इसलिए इन्द्रिय-मनोजन्य ज्ञान को अवधिज्ञान के सामने परोक्ष ही कहना चाहिए। जिस प्रकार जन्मान्ध को अपने ज्ञान की मलिनता व अपूर्णता जान नहीं पड़ती तो भी जो सूझते हैं वे उस अन्धे के ज्ञान को अपने ज्ञान से अधिक मलिन व अपूर्ण अवश्य मानते हैं। उसी प्रकार संसारी जीवों को अपना इन्द्रिय-मनोजन्य ज्ञान मलिन व अपूर्ण नहीं जान पड़ता। वे समझते हैं कि इससे अधिक स्पष्ट और साक्षात् ज्ञान दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय मन का सहारा लिए बिना ज्ञान होना ही असम्भव है। ऐसी समझ तभी तक है और उन्हीं जीवों की है जिनका कि जब तक जन्मान्धपना दूर नहीं हुआ है। जिनको तपश्चरण आदि की महिमा से यह जन्मान्ध का सा आवरण दूर हो गया है, वे इन्द्रिय-मनोजन्य ज्ञान को पराधीन, मलिन तथा अपूर्ण ही मानते हैं। हमें चाहे उसका साक्षात्कार नहीं हुआ तो भी इतनी बात अनुमान से समझ सकते हैं कि अमूर्तिक आत्मा का ज्ञान स्वाभाविक धर्म है, इसलिए ज्ञान जब स्वतन्त्र होगा तब बहुत ही अधिक निर्मल होगा। इस प्रकार उदाहरण व अनुमान से सिद्ध हुए अतीन्द्रिय ज्ञानों में से ही एक (अतीन्द्रिय ज्ञानों का पहला) भेद है, इसलिए इसमें मूर्तिक वस्तु के सिवाय और का प्रकाश नहीं होता। सभी अमूर्तिक तत्त्वों का पूरा-पूरा प्रकाश जिसमें हो सकता है, वह अतीन्द्रिय ज्ञानों का अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ भेद है; उसे केवलज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञान में भी अमूर्तिक-संसारी जीव का थोड़ा-सा भान होने लगता है, परन्तु वह मूर्तिक शरीर के सम्बन्ध से होता है, इसलिए इसका असली विषय मूर्तिक ही माना जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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