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________________ प्रथम अधिकार :: 17 से भी यदि विशद ज्ञान हो जाए तो उसे अनुक्त ज्ञान ही कहना चाहिए। ऐसा अर्थ मानने से नेत्रज्ञान में भी उक्तानुक्त विश्लेषण ठीक हो जाता है, अर्थात् किसी वस्तु को विस्तार से सुन भी लिया हो और फिर देखने में भी आया हो तो उस समय का नेत्रज्ञान उक्तज्ञान कहलाएगा। लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का सम्बन्ध, इसीलिए छहों इन्द्रियों के साथ माना गया है, 'राजवार्तिक' में इस विषय का प्रमाण लिखा है।' श्रुतज्ञान का स्वरूप मतिपूर्वं श्रुतं प्रोक्तमवस्पष्टार्थतर्कणम्॥24॥ तत्पर्यायादिभेदेन व्यासाविंशतिधा भवेत्। अर्थ - मतिज्ञान द्वारा जाने हुए विषय का अवलम्बन लेकर उसी विषय सम्बन्धी जो उत्तर तर्कणा उत्पन्न होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इसके बीस भेद किये गये हैं : (1) पर्याय, (2) अक्षर, (3) पद, (4) संघात, (5) प्रतिपत्ति, (6) अनियोग, (7) प्राभृतप्राभृत, (8) प्राभृत, (9) वस्तु, और (10) पूर्व-ये दश मूल भेद हैं और दश भेद इन्हीं के एक-एक अन्तर्भेद जोड़ने से हो जाते हैं। जैसे, 'पर्याय' यह पहला भेद है और 'अक्षर' यह दूसरा भेद है। पहले भेद 'पर्याय' से ऊपर ज्ञान की मात्रा बढ़ने पर भी जो दूसरे भेद तक नहीं पहुँची हो उसे पहले या दूसरे नाम से न कहकर अन्तर्गत 'समास' इस नाम से कहते हैं। पहले से आगे के समास का (1) 'पर्याय समास' नाम है। दूसरे व तीसरे के मध्यस्थान का (2) अक्षर समास' नाम है। इसी प्रकार (3) पद समास, (4) संघात समास, (5) प्रत्तिपत्ति समास, (6) अनियोग समास, (7) प्राभृतप्राभृत समास, (8) प्राभृत समास, (9) वस्तु समास, व (10) पूर्वसमासइस प्रकार के दश नाम हैं। मिलकर सब बीस भेद हो जाते हैं। उत्तरोत्तर बढ़ते हुए श्रुतज्ञानों के ये नाम हैं। पूर्व व पूर्वसमास समाप्त होने पर श्रुतज्ञान की मर्यादा पूर्ण हो जाती है। इसका स्पष्ट वर्णन गोम्मटसार ग्रन्थ में है। श्रुतरूप ज्ञान की उत्पत्ति देखें तो बीस भेदों में विभक्त है, परन्तु श्रुतज्ञान का वर्णन करनेवाले ग्रन्थों की तरफ देखें तो बारह भेद किये हैं अर्थात् श्रुतज्ञान के गोचर होनेवाले विषयों का विभागपूर्वक वर्णन करते समय स्थूल विभाग बारह किये हैं, परन्तु जो बीस भेद कहे गये हैं वे इस अपेक्षा से कि श्रुतज्ञान की उत्तरोत्तर होनेवाली वृद्धि के सामान्यतया इतने प्रकार हो सकते हैं। दोनों ही भेदों में से श्रुतज्ञान का लक्षण कहीं भी बाधित नहीं होता। प्रश्न-मतिज्ञान के व विषयों के भेद ऊपर लिखे हैं। उनमें से किसी विषय का एक कोई मतिज्ञान रहने पर उसकी सहायता से उस विषयसम्बन्धी दूसरे किसी विषय में उत्पन्न हुए ज्ञान का नाम श्रुतज्ञान है, यह श्रुतज्ञान का लक्षण हुआ। इस लक्षण के अनुसार चाहे जिस मतिज्ञान के बाद होनेवाले को श्रुतज्ञान कह सकते हैं, परन्तु श्रुतज्ञान का अर्थ 'शास्त्रज्ञान' होगा या नहीं? 1. 'घटोऽयं रूपमिदमित्यादि यद्विशेषपरिज्ञानं तच्छ्रतापेक्षं, परोपदेशापेक्षत्वात्। लब्ध्यक्षरत्वात्। श्रुतज्ञानप्रभेदप्ररूपणायां लब्ध्यक्षरश्रुतकथनं षोढा प्रविभक्तम्। तद्यथा-चक्षुः श्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनमनोलब्ध्यक्षरमित्यार्ष उपदेशः । रा.वा., वा. 19-20 2. अत्थक्खरं च पदसंघादं पडिवत्तियाणिजोगं च। दुगवार पाहुडं च य पाहुडयं वत्थुपुव्वं च ॥348 गो. जी. ॥ कमवण्णुत्तरवड्ढय ताण समासा य अक्खरगदाणि। णाणवियप्पे वीसं गंथे वारस य चोद्दसयं ।।349 गो. जी.॥ 3. आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवाद-ये द्वादश भेद हैं। 4. अत्थादो अत्यंतरमुवलंभं तं भणंति सुदणाणं। आभिणिबोहियपुव्वं णियमेणिह सद्दजं पमुहं ।।315 ॥ (गो. जी.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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